October 08, 2017 1Comment

क्या बन्दर थे हनुमान

एक नगर या गांव में एक से लेकर सैकड़ों तक बने हनुमान मन्दिरों
में स्थापित हनुमान जी की मूर्तियों में सजे हनुमान जी के स्वरूप ने इस प्रश्न को
यक्ष प्रश्न बनाकर रख दिया है कि हनुमान जी अपने वास्तविक रामायण पात्र रूप में
क्या थे?| क्या वे एक बन्दर थे?,क्या वे एक आदि मानव थे? या फिर वे वास्तव में
एक अतीव शक्तियों से सम्पन्न एक विद्वान मनुष्य ही थे ?| बाल्मीकि रामायण की
अलंकारिक कवित्त भाषा ने एक अतीन्द्रीय मानव को बानर (वन में रहने वाला) से
बन्दर का ऐसा स्वरूप प्रदान कर दिया जो राम चरित मानस तक आते-आते हिन्दुओं
की कल्पनाशक्ति से बन्दर की मूर्ति में बदल कर जगह-जगह मन्दिरों मे स्थापित हो
कर रह गया | अगर आप तर्क और प्रमाण सामने रख कर भी किसी हनुमान भक्त से
यह विश्वास करने के लिये कहें कि हनुमान जी बन्दर नहीं बानर जाति या जनजाति
के मनुष्य थे तो वह किसी भी दशा में मानने को तैयार नहीं होगा और हो सकता है
कि उसके धार्मिक विश्वास को पहुंच रही ठेस उसे उत्तेजित भी कर दे | ऐसा नहीं है कि
इस गंभीरविषय पर किसी ने गंभीरतापूर्वक विचार न किया हो | अनेक विद्वानों ने इस
प्रश्न पर विचार और मनन किया है | कुछ ने हनुमान जी को और उनकी वानरजाति
को पौराणिक काल्पनिक जाति माना और बाल्मीकि ने जो वानर जातिके कार्यकलापों
का वर्णन किया है उसे ‘निरर्थक विचित्रताओं का ब्यौरा मात्र’ कहा है | कुछ अन्य ने
उन्हें मात्र बन्दर मान कर कोई विशेष महत्व न दिये जानेपर जोर दिया है | किन्तु
वानर सभ्यता का जो सजीव विवरण ‘रामायण’ में है वह इन दोनों मान्यताओं को
गलत सिद्ध करने के पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत करता है | देखा जाय तो रामायण के पात्रों
में सबसे सक्रिय भूमिका में हनुमान ही दिखाई देते हैं | एक बार परिदृष्य में आकर
वे अंत तक कोई न कोई सक्रिय भूमिका निभाते मिलते हैं | एक समर्पित प्रकाण्ड –
विद्वान,बलशाली अतीन्द्रीय सर्वगुण सम्पन्न सेवक के रूपमें उनके कार्यकलाप सह्सा
विश्वास करनेको तैयार नहीं होने देते कि, वे काल्पनिक चरित्र हैं,कोई आदिमानव या
अतीन्द्रीयबन्दर भी हो सकते हैं | शाब्दिकअर्थ का एक ऐसा अनर्थ जो वनचारी,वनजीवी
विद्वान, वीरवर हनुमान को बन्दर बना कर रख दे | गले नहीं उतरता | अगर हनुमान
बन्दर थे तो सीता को खोज लेने के उपरान्त पीठ पर बिठा ले जाने का प्रस्ताव करते
हैं तो सीताजी परपुरूषस्पर्श का पाप ढोने से अच्छा नर्क में रहना क्यों पसन्द करतीं |
यह हनुमान जी के मानव होने का प्रबल साक्ष्य नहीं है ? रामायण में राक्षसों के बाद
बानर जाति का सवसे अधिक उल्लेख हुआ है | वह भी दक्षिण भारत की एक अनार्य
जाति ही थी किन्तु इस जाति ने राम के विरोध के स्थान पर राक्षसों से आर्यों के युद्ध
में राम का साथ दिया सिर्फ यहीनहीं उन्होंने तो पूर्व से ही आर्यसंस्कृति के आचरण
स्वीकार कर रखे थे | बाली से रावण का युद्ध और बाली-सुग्रीव के क्रियाकलाप तथा
तत्कालीन बानर राज्यकी बाल्मीकि द्वारा प्रदर्शित परिस्थितियों से यह दर्पण के समान
स्पष्ट हो जाता है | वास्तविकता यह है कि विंध्यपर्वत के दक्षिण में घने वनों मॅं
निवास करने वाली जनजाति थी बानर | वे बनचर थे इस लिये वानर कहे गये या
फिर उनकी मुखाकृति वानरों से मिलती जुलती थी अथवा अपने चंचल स्वभाव के –
कारण इन्हें वानर कहा गया या फिर इनके पीछे लगी पूंछ के कारण(इस पर आगे –
चर्चा करेंगे)ये बानर कहलाए | यह इतिहास के गर्भ में है | केवल नामकरण के ही
आधार पर बन्दर मान लेना उचित नहीं होगा | इस सम्बन्ध में केवल एक उदाहरण
ही पर्याप्त होगा | दक्षिण में एक जाति’नाग’पाई जाती है | क्या वे लोग नाग(सर्प) हैं |
नागों का लंका के कुछ भागों पर ही नहीं प्राचीन मलाबार प्रदेश पर भी काफी दिनों तक
अधिकार रहने के प्रमाण मिलते हैं | रामायण में सुरसा को नागों की माता और समुद्र
को उसका अधिष्ठान बताया गया है | मैनाक और महेन्द्र पर्वतों की गुफाओं मे भी ये
निवास करते थे |समुद्र लांघने की हनुमान की घट्ना को नागों ने प्रत्यक्ष(५/१/८४-
बा.रामा.)देखा था | नागों की स्त्रियां अपनी सुन्दरता के लिये प्रसिद्ध थीं(५/१२/२१-
बा.रा.)| नागों की कई कन्याओं का अपहरण रावण ने किया था(५/१२/२२ बा.रा.)|
रावंण ने नागों की राजधानी भोगवती नगरी पर आक्रमण करके(७/२३/५,६/७/९,-
३/३२/१४)वासुकी,तक्षक,शंख और जटी नामक प्रमुख नागराजों को धूल चटाई थी |
कालान्तर में नाग जाति के इक्का दुक्का को छोड़कर प्रथम शताब्दी में प्रभुत्व में आई
चेर जाति में समाहित होने के प्रमाण हैं(सप्तम ओरिएंटल कांफ्रेन्स विवरणिका-१९३३-
सा उथ इन्डिया इन द रामायन-वी.आर.रामचन्द्र )|
स्वंय तुल्सी दास ने लंका की शोभा का वर्णन करते हुए लिखा है –
वन बाग उपवन वाटिका सर कूप वापी सोहहिं,
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहिं |
छत्तीसगढ़ में भी क्षेत्रीय राजवंश के रूप में बस्तर में नल और नाग
वंश, कांकेर सोमवंशी और कवर्धा में फड़ नागवंशी राजाओं का विस्तृत उल्लेख
है | बिलासपुर जिला मुख्यालय के पास स्थित कवर्धा रियासत में चौरा –
नामक एक मन्दिर है | इसे लोग मडवा महल भी कहते हैं | इस मन्दिर में
सन 1349 ई. का एक शिलालेख लगा है जिसमे नागवंशी राजाओं की वंशा-
वली दी गई है | नागवंश के तत्कालीन राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया
था | इस शिलालेख के अनुसार इस वंश के प्रथम राजा अहिराज थे | भोरम-
देव के क्षेत्र पर इस नागवंश का आधिपत्य 14 वीं शताब्दी तक कायम रहा
था | बाद में इस पर खिलजी वंश, मराठों का भी राज्य रहा |
यह भी कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ का यह क्षेत्र पहले –
कौशल का एक भाग था जो बाद में दो भागों में विभाजित होने पर दक्षिण
कौशल कहलाया | यह भी विश्वास किया जाता है कि कौशल्या जो दशरथ –
की पटरानी और राम की माँ थीं, यहीं की थीं |
इसी प्रकार बाल्मीकि रामायण में रावण को जगह-जगह दशानन,दश-
कन्धर,दशमुख और दशग्रीव आदि पर्यायों से सम्बोधित किया गया है | इसका शाब्दिक
अर्थ दस मुख या दस सिर मानकर रावण को दस सिरों वाला अजूबा मानलिया गया |
जबकि बाल्मीकि द्वारा प्रयुक्त इन विशेषणों का तात्पर्य-“द्शसु दिक्षु आननं(मुखाज्ञा)-
यस्य सः दशाननः अर्थात रावण का आदेश दसों दिशाओं में व्याप्त था | इसी लिये वह
दशानन या दशमुख कहलाता था | यही नहीं कवि ने पक्षीराज जटायु के मुख से ही
कहलाया है कि वह दशरथ का मित्र है | रामायण में घटे प्रसंगो और घटनाओं से ही
स्पष्ट हो जाता है कि जटायु गिद्ध नहीं मनुष्य था | कवि ने आर्यों के आदरसूचक –
शब्द आर्य का कई बार जटायू के लिये प्रयोग किया है | रामायण में जगह-जगह –
जटायू के लिये पक्षी शब्द का प्रयोग भी किया गया है | इसका समाधान ताड्यब्राह्म्ण
से हो जाता है जिसमें उल्लिखित है कि-“ये वै विद्वांसस्ते पक्षिणो ये विद्वांसस्ते पक्षा”
(ता.ब्रा.१४/१/१३)अर्थात जो जो विद्वान हैं वे पक्षी और जो अविद्वान(मूर्ख) हैं वे पक्ष-
रहित हैं | जटायु वान-प्रस्थियों के समान जीवन व्यतीत कर रहे थे | ज्ञान तथा कर्म
उनके दो पक्ष थे जिनसे उड़कर(माध्यम से)वे परमात्मा प्राप्ति का प्रयास कर रहे थे |
अतः उनके लिये पक्षी का सम्बोधन सर्वथा उचित है |
वानरों का अपना आर्यों से मिलता जुलता राजनैतिक संगठन था इसका
वर्णन बाल्मीकि ने अनेक प्रसंगों में किया है | उल्लेख कपि राज्य के रूप में किया
गया है | जिससे स्पष्ट होता है कि उनकी एक सुसंगठित शासन व्यवस्था थी एक –
प्रसंग में तो बाली के पुत्र अंगद ने सुग्रीव से प्रथक वानर राज्य गठन का विचार तक
कर लिया था (०४/५४/०१)| सीता की खोज में दक्षिण गए वानरों के समूह से समुद्र
की अलांघ्यता महसूस कर अंगद कहते है-
कस्य प्रसाद्दारांश्च पुत्रांश्चैव गृहाणि च |
इतो निवृत्ता पश्येम सिद्धार्थाः सुखिनो वयम् |(०४/४६/१७)
अर्थात- किसके प्रसाद से अब हम लोगों का प्रयोजन सिद्ध होगा और हम सुख पूर्वक –
लौटकर अपनी स्त्रियों,पुत्रों अट्टालिकाओं व गृहों को फिर देख पाएंगे |
विभिन्न स्थानों पर बाल्मीकि ने वानर नर नारियों की मद्यप्रियता का भी उल्लेख
किया है | वानरों के सुन्दर वस्त्राभूषणों का भी हृदयग्राही वर्णन स्थान-स्थान पर
आता है | सुग्रीव के राजप्रसाद की रमणियां”भूषणोत्तम भूषिताः (०४/३३/२३)थीं |
वानर पुष्प,गंध,प्रसाधन और अंगराग के प्रति आग्रही थे|किष्किंधा का
वायुमण्डल चंदन, अगरु और कमलों की मधुर गंध से सुवासित रहता था (चन्दनागुरु-
पद्मानां गन्धैः सुरभिगन्धिताम्(०४/३३/०७)|
सुग्रीव का राज्याभिषेक जो बाल्मीकि जी ने(समकालीन एंव इतिहासवेत्ता-
होने के कारण)वर्णित किया है शास्त्रीय विधिसम्मत परम्परागत प्रणाली के अधीन ही
सम्पन्न हुआ था | इस तथ्य का द्योतक है कि वानर आर्य परम्पराओं और रिति –
रिवाजों का पालन करते थे अर्थात आर्य परम्पराओं के हामी थे | बाली का आर्यरीति
से अन्तिम संस्कार और सुग्रीव का आर्य मंत्रों और रीति से राज्याभिषेक भी सिद्ध –
करता है कि चाहे वानर आर्येतर जाति हों थे उनके अनुपालनकर्ता मानव ही बन्दर –
नहीं | यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक होगा कि बाल्मीकि रामायण जो तत्का-
लीन इतिहास ग्रंथ के रूप में लिखा गया था के अनुसार वानरों की जाति पर्याप्त सु-
संस्कृत और सुशिक्षित जनजाति थी | सुग्रीव के सचिव वीरवर हनुमान बाल्मीकि –
रामायण के सर्वप्रमुख-उल्लिखित वानर हैं | जिन्होंने अपनी विद्वतता से मर्यादा पु-
रुषोत्तम श्री राम को सबसे अधिक प्रभावित किया और उनके प्रियों में सर्वोच्च स्थान
भी प्राप्त करने में सफल रहे | वह वाक्यज्ञ और वाक्कुशल(०४/०३/२४) तो थे ही
व्याकरण,व्युत्पत्ति और अलंकारों के सिद्धहस्ता भी थे | उनसे बात करके श्रीराम ने
यह अनुमान लगा लिया कि- जिसे ऋग्वेद की शिक्षा न मिली हो, जिसने यजुर्वेद
का अभ्यास न किया हो तथा जो साम वेद का विद्वान न हो वह इस प्रकार की –
सुन्दर भाषा का प्रयोग( नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः | नासामवेद्विदुषः शक्य-
मेवं विभाषितुम् || नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् | बहु व्याहरतानेन न
किंचिदपशव्दितम् ||०४/०३/२८-९) नहीं कर सकता | हनुमान उन आदर्श सचिवों
में सर्वश्रेष्ठ थे जो मात्र वाणी प्रयोग से ही अपना प्रयोजन प्राप्त कर सकते थे |
सार संक्षेप में हनुमान एक पूर्णमानव,बल,शूरता,शास्त्रज्ञान पारंगत,
उदारता,पराक्रम,दक्षता,तेज,क्षमा,धैर्य,स्थिरता,विनय आदि उत्तमोत्तम गुणसम्पन्न
(एते चान्ये च बहवो गुणास्त्वय्येव शोभनाः|०६/११३/२६) पूर्ण मानव थे अर्ध मा-
नव या बन्दर नहीं थे |
और अब अन्त में उस तथ्य पर विचार जिसके आधार पर वानरों और
विशेषकर वीरवर हनुमान की बन्दर स्वरूप की कल्पना हुई | अर्थात उनकी पूंछ के
यथार्थ पर विचार करें |
“वानर शब्द की इस जाति के लिए बाल्मीकि रामायण में १०८० बार –
आवृति हुई है तथा इसी के पर्याय स्वरूप ‘वन गोचर’,’वन कोविद’,’वनचारी’और
‘वनौकस’ शब्दों का भी प्रयोग किया गया है | इससे स्पष्ट होता है कि वानर शब्द –
बन्दर का सूचक न होकर वनवासी का द्योतक है | इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार करनी
चाहिये-वनसि(अरण्ये)भवः चरो वा वानरः=वनौकसः,आरण्यकः | वानरों के लिये –
हरि शब्द ५४० बार आया है |इसे भी वनवासी आदि समासों से स्पष्ट किया गया है |
‘प्लवंग’ शब्द जो दौड़ने की क्षमता का व्यंजक है, २४० बार प्रयुक्त हुआ है | वानरों –
की कूदने दौड़ने की प्रवृत्ति को सूचित करने के लिये प्लवंग या प्लवंगम् शब्द का व्य-
हार उपयुक्त भी है | हनुमान उस युग के एक अत्यन्त शीघ्रगामी दौड़ाक या धावक थे |
इसीलिये उनकी सेवाओं की कईबार आवश्यकता पड़ी थी | कपि शब्द ४२० बार आया
है, जो सामान्यतः बन्दर के अर्थ में प्रयुक्त होता है | क्योंकि रामायण में वानरों को –
पूंछ युक्त प्राणी बताया गया है,इसलिये वे कपयः थे | वानरों को मनुष्य मानने में –
सबसे बड़ी बाधा यही पूंछ है | पर यदि सूक्ष्मता से देखा जाय तो यह पूंछ हाथ पैर
के समान शरीर का अंग न होकर वानरों की एक विशिष्टजातीय निशानी थी,जो संभवतः
बाहर से लगाई जाती थी | तभी तो हनुमान की पूंछ जलाए जाने पर भी उन्हें कोई
शारिरिक कष्ट नहीं हुआ | रावण ने पूंछ को कपियों का सर्वाधिक प्रिय भूषण बताया
था-‘कपीनां किल लांगूलमिष्टं भवति भूषणम्(०५/५३/०३)”-(रामायणकालीन समाज-
शांति कुमार नानूराम व्यास) |
इस संबन्ध में यह अवगत कराना भी उचित होगा कि पूर्वोत्तर राज्यों में
अभी भी ऐसी कई जातियां हैं जो अपने सर पर जंगली पशुओं के दो सीग धारण करके
अपनी शक्ति और वीरता का परिचय हर उत्सव के समय देते हैं तो क्या उन्हें जंगली
भैंसा या बैल मानलिया जाय | मध्य प्रदेश की मुण्डा जनजाति में भी यही परिपाटी है |
शायद शक्ति प्रदर्शन के साथ ही यह सर की सुरक्षा का एक सरल उपाय होता हो |जिस
प्रकार क्षत्रिय या सैनिक अपनी पीठ पर सुरक्षा के लिये गैंडे की खाल से बनी ढाल को
पहनते रहे हैं हो सकता है वानर वीर भी अपने पृष्ट भाग क़ी सुरक्षा हेतु बानर की पूंछ
के समान धातु या फिर लकड़ी अथवा किसी अन्य हल्की वस्तु से बनी दोहरी वानर –
पूंछ को पीछे से जिधर आंखें या कोई इन्द्रिय सजग नहीं होती की ओर से हमला
बचाने के लिये लगाया जाता हो | क्योंकि बाली,सुग्रीव या अंगद की पूंछ का कहीं पर
भी कोई जिक्र नही आता है यह भी अजीब बात है या नहीं ? इस विषय पर भी खोज
और गहरा अध्ययन आवश्यक है | ताकि कारणों का पता चल सके |
यहां यह स्पष्ट करना भी उचित होगा कि बाल्मीकि रामायण में किसी भी
जगह या प्रसंग में वानरों की स्त्रियों के पूंछ होने का उल्लेख या आभास तक नहीं है |इसी
सन्दर्भ में चीनी यात्री ह्वेनसांग के भारत यात्रा के संस्मरण में ‘तुहोलो देश’
के वर्णन में उन्ही के शब्दों में उल्लेख किया जाना उचित होगा | वे कहते
हैं – ” प्रकृति शीतल और मनुष्यों का आचरण दुष्टता और चालाकी से भरा हुआ
था | सत्य और असत्य में क्या भेद है, ये लोग नहीं जानते | इनकी सुरत भद्दी
होती है और उससे कमीनापन टपकता है | यहाँ के लोगों का व्यवहार, सभ्यता
का स्वरूप, इनके ऊनी, रेशमी और नमदे के वस्त्र आदि सब बातें तुर्कों के –
समान हैं |”,” यहा की स्त्रियाँ अपने सर के वस्त्र के ऊपर लगभग 3 फिट ऊंचा –
लकड़ी का एक सींग लगा लेती हैं जिसके अगले भाग में दो शाखाएं होती हैं |
जो उसके पति की के माता-पिता की सूचक होती है | ऊपरी भाग पिता का
सूचक और निचला सींग माता का सूचक होता है | इनमे से जिसका प्रथम
देहांत होता है, उसी का सूचक एक सींग उतार दिया जाता है | दोनों के न रहने
पर यह शिरोभुषण धारण नहीं किया जाता | (पृष्ट 185-86, और 146 चीनी यात्री
ह्वेनसांग की भारत यात्रा- ठाकुर प्रसाद शर्मा)(बुद्ध के वंशज- डा.रमाकांत कुश-
वाहा- पृष्ट- 93) |
यहाँ यह कथन भी .समीचीन होगा कि भारतीय
परिपेक्ष्य में प्राचीन जनजातियों में अपनी विशिष्ट पहचान के लिए टोटम
परिपाटी प्रचिलित थी अर्थात किसी पशु या पक्षी के माध्यम से अपनी –
और आपनी जनजाति की पहचान बनाए रखते थे उन्हें पवित्र मानते थे
और उन्हें पूजनीय मानते थे | ऊपर की पंक्तियों में हमने नाग जाति का
उल्लेख किया है | इस जाति का टोटम कुंडली में फन फैलाए ‘नाग’ था |
इन्हें तक्षक या नाग सम्बोधित किया जाता था | ” ये लोग नाग की पूजा
किया करते थे तथा कभी कभार विशेष अवसरों पर कृत्रिम कोबरा फन
को सिर पर पहनते थे, इसी कारण ये नाग कहलाते थे | ये नाग मूल रूप
से पश्चिमोत्तर पंजाब अर्थात सिन्धु घाटी के निवासी थे |” (एशियेंट ज्योग्रफी
आफ इन्डिय,पृष्ट-१४८)
यह भी उल्लेखनीय है कि अन्वेषकों ने पूंछ लगाने वाले लोगों या जातियों
का भी पता लगा लिया है |बंगाल के कवि मातृगुप्त हनुमान के अवतार माने जाते थे,
और वे अपने पीछे एक पूंछ लगाए रहते थे (बंगाली रामायण पृष्ट्-२५,दिनेश चन्द्र सेन)
भारत के एक राजपरिवार में राज्याभिषेक के समय पूंछ धारण कर राज्यारोहण का
रिवाज था ( वही )| वीर विनायक ने अपने अण्डमान संसमरण में लिखा है कि वहां
पूंछ लगाने वाली एक जनजाति रहती है(महाराष्ट्रीय कृत रामायण-समालोचना)|
उपरोक्त तथ्यों से इस भ्रान्ति का स्पष्ट निराकरण हो जाता है कि वानर
नामक जनजाति जिसके तत्कालीन प्रमुख सदस्य वीरवर हनुमान थे एक पूर्ण मानव
जाति थी , बन्दर प्रजाति नहीं | हां उनकी अत्यधिक चपलता,निरंकुश और रूखा –
स्वभाव,चेहरे की (संभवतः पीला रंग और मंगोलायड मुखाकृति जो थोडी बन्दरों से
मिलती होती है) बनावट के कारण ही तथा अनियमित यौन उच्छृंखलता,वनों,पहाड़ों
में निवास,नखों और दांतों का शस्त्र रुप में प्रयोग और क्रोध या हर्ष में किलकारियां
मारने की आदत के कारण उन्हें एक अलग पहचान देने के लिये ही आर्यों ने उनके
लिये कपि या शाखामृग विशेषण का प्रयोग किया हो और जो आदतों पर सटीक
बैठ जाने के कारण आमतौर से प्रयोग होने लगा हो | जिसने इनके पूर्व जातिनाम
का स्थान ले लिया हो |
इस सन्दर्भ में यह भी पुन:अवगत कराना व पाठकों के संज्ञान में
लाया जाना सर्वथा उचित होगा की जब से आदिवासी समाजों ने अपने आप
को व्यवस्थित सामाजिक ढाँचे में ढाला है तब से अपनी अलग पहचान बनाए –
रखने के लिए अपनी पृथक एक सूत्रीय अस्मिता के लिए एक प्रतीक चिन्ह
निश्चित किया है | जिसे समाज शास्त्र में ‘टोटमवाद’ के नाम से जाना जाता है |
इस परम्परा के अधीन प्रत्येक आदिवासी समाज अपने लिए अपने समाज के
लिए हितकर, उपयोगी या आदर्श वस्तु, पशु, पक्षी या वनस्पति को अपना –
प्रतीक चिन्ह बना लेते थे और उसी से उनके समाज का सामान्य परिचय भी
सम्भव हो जाता था | अपने साथ वे अपने टोटम का भी उल्लेख करते थे और
इस प्रकार उनका और उनके समाज,स्थान आदि का पूर्ण परिचय हो जाता था,
मेरे विचार से यह शत-प्रतिशत सम्भावना है कि वनों में रहने और बंदरो के –
समान चपल होने के कारण या फिर घोर वनों में रास्तों के अभाव में इस –
समाज के लिए बंदरों को आदर्श मानकर उनके समान पेड़ों की डालियों. को -.
आवागमन के लिए प्रयोग करना प्रारम्भ किया हो और उसे सुविधाजनक भी
मानते हुए अपने समाज का टोटम (प्रतीक चिन्ह) बानर (बन्दर) निश्चित कर –
लिया हो और अपनी बिना बताए पहचान प्रदर्शन के लिए बानर की पूंछ को
प्रतीक चिन्ह के रूप में किसी अन्य समाज में जाने पर धारण कर लेने की –
परम्परा की शुरुआत की हो और इसी के अनुरूप लंका जाते समय हनुमानजी
ने प्रतीक चिन्ह के रूप में अलग से बनाई गई बन्दर जैसी पूंछ को धारण –
किया गया हो | जो एक और तो परिचयात्मक स्वरूप तो लेती ही थी वंही पर-
देश में अनारक्षित पिछले अंगो के लिए ढाल का काम भी करती ही रही हो | –
जिसे अज्ञानतावश पूर्ववर्त्ती अन्य समाज के लोगों ने इस टोटम के प्रतीक और
पहचान चिन्ह को इस जनजाति को बंदरों से जोड़ दिया हो |
इस जनजाति के किसी अन्य जाति में विलय या संस्कृति
नष्ट हो जाने के उपरान्त कपि शब्द ने, पर्याय के स्थान पर प्रमुख उदबोधन का –
स्थान ले लिया हो | मन्मथ राय ने वानरों को भारत के मूल निवासी ‘व्रात्य’ माना
है (चिं.वि.वैद्य-द रिडिल आफ दि रामायण पृ.२६)| के. एस. रामास्वामी शास्त्री ने –
वानरों को आर्य जाति माना है | जो दक्षिण में बस जाने के कारण आर्य समाज से
दूर होकर जंगलों में सिमट गई और फिर आर्य संस्कृति के पुनः निकट आने पर
उसी में विलीन हो गई| व्हीलर और गोरेशियो आदि अन्य विद्वान दक्षिण भारत की
पहाड़ियों पर निवास करने वाली अनार्य जाति मानते हैं जो आर्यों के सन्निकट आ-
कर उन्हीं की संस्कृति में समाहित हो गई | यह जनजाति या जाति चाहे आर्य रही
हो या अनार्य थी एक विकसित आर्य संस्क़ृति के निकट, ललित कलाओं के साथ
चिकित्सा,युद्ध कला,रुप परिवर्तन कला और अभियन्त्रण ( अविश्वसनीय लम्बे-
लम्बे पुल बनाने की कला सहित),गुप्तचरी और मायावी शक्तियों के प्रयोग में बहुत
चतुर मानव जाति | कोई पशुजाति नही थी | इसके तत्कालीन सिरमौर वीर-
वर हनुमान एक श्रेष्ठ मानव थे बन्दर नहीं |
वानरों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्वंय वाल्मीकि रामायण क्या कहती है यह
भी अत्यन्त स्पष्ट घोषणा है कि वानर अधिकतर देवताओं के पुत्र थे | बालकाण्ड के
सत्रहवें सर्ग मे इनकी उत्पत्ति का विवरण निम्न प्रकार है –
जब भगवान विष्णु महामनस्वी राजा दशरथ के पुत्र भाव को प्राप्त हो
गये,तब भगवान ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण देवताओं से इस प्रकार कहा (१)-
प्रधान-प्रधान अप्सराओं,गन्धर्वों की स्त्रियों,यक्ष और नागों की कन्याओं,
रीछों(नागों के समान यह भी कोई जाति रही होगी-लेखक)की स्त्रियों,विद्याधरियों,किन्नरियों
तथा वानरियों (स्पष्ट है यह भी अन्य जातियों की तरह कोई मनुष्य जाति थी होगी तभी
वाल्मीकिने अन्य जातियों के साथ वानरियों शब्द का उल्लेख किया है-लेखक)के गर्भ से
वानररूप -(सम्भवतः वन में रहने वाले-लेखक) में अपने ही तुल्य पराक्रमी पुत्र उत्पन्न
करो(५-६)|
भगवान ब्रह्मा के ऐसा कहने पर देवताओं ने उनकी आज्ञा स्वीकार की और –
वानररूप में अनेकानेक पुत्र उत्पन्न किये | महात्मा,ऋषि,सिद्ध,विद्याधर,नाग और चारणों
ने भी वन में विचरने वाले वानर-भालुओं के रूप में वीर पुत्रों को जन्म दिया (९)|
किस देवता ने किस वीर बानर को उत्पन्न किया इसका भी विवरण उन्होंने
स्पष्ट किया है –
देवराज इन्द्र ने वानरराज बाली को पुत्र रूप में उत्पन्न किया | जो महेन्द्र –
पर्वत के समान विशालकाय और बलिष्ट था | तपने वालों में श्रेष्ट भगवान सूर्य ने सुग्रीव
को जन्म दिया (१०)|
हनुमान नाम वाले ऐश्वर्यशाली वानर वायुदेवता के औरस(जायज-लेखक) पुत्र
थे | उनका शरीर वज्र के समान सुदृढ था | वे तेज चलने में गरूड़ के समान थे (१६)|
सभी श्रेष्ट वानरों में वे सबसे अधिक बुद्धिमान और बलवान थे | इस प्रकार कई
हजार वानरों की उत्पत्ति हुई| वे सभी रावण का वध करने के लिये उद्यत रहते थे(१७)|
कुछ वानर रीछ जाति की माताओं से तथा कुछ किन्नरियों से उत्पन्न हुए |
देवता,महर्षि,गन्धर्व,गरूड़,यशस्वी यक्ष,नाग,किम्पुरूष,सिद्ध,विद्याधर तथा सर्प जाति के –
बहुसंख्यक व्यक्तियों ने अत्यन्त हर्ष में भर कर सहस्त्रों पुत्र उत्पन्न किये | वे सब
जंगली फल-मूल खाने वाले थे(२३)|
मुख्य-मुख्य अप्सराओं,विद्याधरियों,नाग कन्याओं तथा गन्धर्व-पत्नियों के गर्भ
से भी इच्छानुसार रूप और बल से युक्त तथा स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने में
समर्थ वानर पुत्र उत्पन्न हुए(२४)|
उपरोक्त विवरण स्वमेव सिद्ध करता है कि स्वंय वाल्मीकि वानरों को वन में
रहने वाली स्वेच्छाचारी मनुष्य जाति ही मानते थे | बन्दर तो बिल्कुल भी नहीं माना
है उन्होंने | और हम हैं कि हमने वीरवर हनुमान को जो सर्वगुण सम्पन्न देवपुत्र मानव
थे को बन्दर का विद्रूप स्वरूप प्रदान कर दिया केवल कुछ शब्दों का गलत अर्थ लगा
कर या तो अनजाने में या फिर बुद्धिहीनता के वशीभूत | गलती आज भी सुधारलें तो
कोई देर नहीं हुई है |और अन्त में वाल्मीकि रामायण का एक प्रसंग युद्ध काण्ड से-जब
श्री राम की आज्ञा से उनकी सकुशल वापसी का सुसमाचार देने के लिये हनुमान भरत
की कुटिया में जाकर उन्हें यह समाचार देते हैं तो भरत प्रसन्नहोकर उन्हें यह् कहते हैं –
“भैया! तुम कोई देवता हो या मनुष्य,जो मुझ पर कृपा कर यहां पधारे –
हो? सौम्य! तुमने जो यह प्रिय संवाद सुनाया है, मैं इसके बदले तुम्हें कौन सी वस्तु
प्रदान करूं ?(मुझे तो कोई ऐसा बहुमूल्य उपहार नहीं दिखाई देता,जो इस प्रिय सम्वाद
के तुल्य हो)(४३)|
“(तथापि)मैं तुम्हें इसके लिए एक लाख गौएं,सौ उत्तम गांव तथा उत्तम –
आचार विचार वाली सोलह कुमारी कन्यायें पत्नी रूप में समर्पित करता हूं(ब्रह्मचारी होने
के कारण हनुमान ने सम्भवतः कन्याओं को लेना स्वीकार न किया हो-लेखक) | उन
कन्याओं के कानों में सुन्दर कुण्डल जगमगाते होंगे | उनकी अंग कान्ति सुवर्ण के समान
होगी | उनकी नासिका सुघड़,ऊरू मनोहर और मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर होंगे | वे
कुलीन होने के साथ ही सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित होंगी “(४४-४५)|
यह प्रसंग भी क्या यह सिद्ध नहीं करता कि हनुमान मानव ही थे तभी –
तो उन्हे सोलह रूपवती कुलीन कन्याएं पत्निस्वरूप भेंट की जा रही थीं | किसी बन्दर को
कुलीन कन्याएं पत्निस्वरूप भेंट करने का क्या औचित्य होता? यह हमारा विवेक और
बुद्धि स्वंय निर्णय कर सकती है |
— राज सक्सेना , धन वर्षा, हनुमान मन्दिर खटीमा-262308 (उ०ख०) मो०-09410718777

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gtripathi

1 comment

  1. बहुत ही बेहतर तरीके से आपने इस चर्चा में बताया है और यह साबित किया है कि हनुमान जी वानर जाति के थे और कालांतर में धीरे धीरे जाति से कुछ और ही लोगों ने समझ लिया और आज यह इस रूप में देखी जा रही है स्थिति को स्पष्ट करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद

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