June 28, 2022 13Comments

ऐसा भी होता है!

-पुष्पा जोशी ‘प्राकाम्य’, शक्तिफार्म,सितारगंज,
ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड

कामिनी अपनी माँ और बहन अनीता के साथ रोजगार की तलाश में शहर का रुख कर, किराए का मकान तलाशती हुई नमिता से आ मिली। सड़क से लगे एक मकान के बाहर खड़ी नमिता को अभिवादन करते हुए कामिनी ने पूछा, “आपके यहाँ किराए पर कमरा मिल जायेगा क्या?”
“हम्म्म्म्,,,,,,।” नमिता के मुँह से निकला।
” हम रोजगार की तलाश में बाहर निकले हैं। कमरा मिल जाय, फिर रोजगार, तो जीवन जरा आसान हो जाए,,,,,,!” कामिनी ने कहा।
“कमरा मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी,,,,,,,,।” कामिनी की माँ ने कामिनी की बात आगे बढ़ायी।
“नई जगह,,,,नये लोग,,, कितना मुश्किल होता है,,,,!
“न कोई जान, न कोई पहचान,न कोई सहारा,,,,,,,,,! रुँधे-से गले से वह बोली।
कामिनी व अनीता के चेहरे पर भी दुख व निराशा के भाव साफ झलक रहे थे।
उदार हृदय नमिता को यह सुनकर बहुत बुरा लगा।
“क्यों! तुम्हारे यहाँ रोजगार नहीं मिलता क्या,,,,,? जो रोजगार तलाशते तुम लोग यहाँ तक पहुँच गये,,,,,,,,,!” आश्चर्यचकित-सी नमिता ने बीच में ही बात काटते हुए कहा।
“रोजगार,,,,,,! कामिनी ने दुखी-आक्रोशित स्वर में कहना शुरू किया। “हमारी बिरादरी में औरतों का काम पर जाना तो बहुत दूर, घर से बाहर निकलना तक पसंद नहीं किया जाता। लड़कियों की पढ़ाई तक तो हो नहीं पाती, रोजगार की कहाँ सोचेंगे।”
कहते हुए आँखें नम हो गयीं उसकी।
कामिनी के कंधे पर हाथ रख माँ ने सहारा दिया ।
“मेरा जीवन तो कट ही गया समझो, पर इन लड़कियों का क्या होगा यही सोचकर मैं रात भर सो नहीं पाती,,,,,,,।” कहते-कहते वह भी रो पड़ी।
कामिनी ने खुद को संयत किया और बोली, “माँ और मुझे कुछ काम मिल जाए तो हम छोटी को पढ़ा तो पाएँगे,,,,,,।”
“माँ! अंधेरा हो गया है, चलें! धर्मशाला भी बंद हो जाएगी तो कहाँ जाएँगे,,,,,,,,!” अनीता कह रही थी।
“धर्मशाला में ठहरें हैं आप लोग!” नमिता ने पूछा।
“हाँ सेवाश्रम धर्मशाला। तीन-चार दिनों से वहीं पड़े हैं। जब तक कमरा न मिल जाए, वहाँ रहना ही पड़ेगा। वहाँ भी न जाने कैसे-कैसे लोग आते हैं! सबकी नजरों से बचकर रहना पड़ता है,,,,,,,,,।ईश्वर औरत न ही बनाता तो अच्छा था।,,,,,” हालातों की मारी कामिनी की माँ को ईश्वर से ही शिकायत थी मानो।
“नहीं-नहीं, ऐसे नहीं कहते,,,,,! मुश्किलें तो सभी के साथ होती हैं। पर मुश्किलों का हल भी तो होता है,,,,।” कहते हुए नमिता बोली, “कमरा तो है पर मैं इनसे पूछकर ही बता सकती हूँ। पूछ कर देखती हूँ! देखें क्या कहते हैं,,,,,,,!”
“बस इतनी भर सहायता कर दीजिये। बड़ी मेहरबानी होगी,,,,। प्लीज,,,!” याचना-सी की उन्होंने।
“देखती हूँ क्या कहते हैं! कल मिल लेना ।”
“किस समय आ जाएँ,,,?” कामिनी ने पूछा।
“दोपहर तक,,,,,,।” नमिता बोली।
रात को खाना परोसते हुए नमिता ने अपने पति अशोक से शिकायती लहजे में कहा, “इस दुनिया में तो जैसे औरतों के लिए परेशानियों के सिवा कुछ रखा ही नहीं है,,,,,,,!”
“अरे! क्या परेशानी हो गयी मालकिन,,,,,,!” अशोक मुस्कुराया।
“अरे नहीं! मैं अपनी बात नहीं कर रही, मेरे जैसा पति और परिवार तो ईश्वर सबको दे,,,।” फिर नमिता बताने लगी, “शाम को एक औरत व दो लड़कियाँ किराये पर मकान तलाशते हुए आयी थीं,,,,,,,,,,,,,,,,,।”
सारी बात बता चुकने के बाद नमिता ने, मकान का एक हिस्सा जो किराए के उद्देश्य से ही बनाया गया था, उन्हें देने की बात कही।
” मगर तुम उन्हें जानती कितना हो! जो कमरा देने की बात कह रही हो,,,,,!” अशोक ने टोका।
“मानती हूँ, नहीं जानती। पर सच में ही लग रहा है कि वे लोग बहुत मुसीबत में हैं।” अशोक को मनाने के लहज़े में वह बोली, “ऐसे में उनकी मदद तो करनी ही चाहिए। हैं न! मुझे तो लगता है, आपको नहीं लगता!”
“लगता तो है‌। पर,,,,,,,,,! कुछ पल रुककर अशोक ने पूछा, “कहाँ ठहरे हैं बता रहे थे,,,,,?”
“किसी सेवाश्रम धर्मशाला का नाम ले रहे थे,,,,।” नमिता बोली।
“ठीक है सुबह मालूम करता हूँ। लेकिन अभी तुम बिना रोए चुपचाप सो जाना समझी,,,,,!” प्यार से झिड़की दी अशोक ने।
नमिता मुस्करा दी। बहुत खुश थी वह, अशोक ने हामी जो भर दी थी। दूसरा यह सोचकर भी कि मुसीबत में फँसे लोगों की मदद कर पाएगी।
सुबह अशोक ने अपने दोस्त से, जो सेवाश्रम धर्मशाला में ही कार्यरत था, उनके बारे में जानकारी ली तो पता चला कि इसी धर्मशाला में ठहरे हैं ये लोग। पता भी वही लिखवाया है जो उन्होंने बताया।
अशोक नमिता से बोला, “तुम कमरा दे सकती हो, पर तभी तक, जब तक कि वे दूसरा ठिकाना नहीं ढूँढ लेते,,,,,।”
आत्मिक शाँति प्राप्त हुई नमिता को। चेहरा चमक उठा उसका, यह सोचकर कि कितना मान रखता है अशोक उसकी हर बात का। “हर जन्म में मुझे अशोक ही मिलें ईश्वर,,,,,,,,,!” वह मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी।
अशोक काम पर जा चुका था। नमिता अपनी दैनिक दिनचर्या में लग गयी। दोपहर करीब दो बजे कामिनी नमिता के कहे अनुसार अपनी माँ व बहन के साथ पहुँच चुकी थी।
“आप लोग आ सकते हैं,,,,,,।” नमिता ने कहा। “लेकिन तभी तक जब तक कि आपको दूसरा ठिकाना नहीं मिल जाता,,,,,,,।”
” आपका बहुत-बहुत धन्यवाद,,,,,।” कहते हुए खुशी व आभार व्यक्त किया उन्होंने।
उनसे कहीं अधिक खुशी नमिता को थी कि वह उनकी मदद कर पायी।
बातों-बातों में ही कामिनी ने बताया कि उसकी माँ को भी कहीं काम मिल गया है। कामिनी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आप हमारे लिए बहुत लकी हैं,,,,,,।”
“ठीक है! आप लोग आ सकते हैं,,,,,,,,,!” नमिता बोली।
शाम को कामिनी अपनी माँ और बहन के साथ कुछ जरूरी सामान लेकर आ चुकी थी। नमिता ने कमरा दिखाया और बोली, “आप लोग सामान रखिए, मैं आती हूँ,,,,,,,,,।” कहकर वह चल दी।
रिक्शे वाला सामान कमरे में रख अपनी मजदूरी ले चलता बना।
माँ-बेटियों ने सामान व्यवस्थित करना शुरू किया।
कमरे में एक तखत पहले से पड़ा था, उसके पास ही उन्होंने फोल्डिंग चारपाई लगाकर बिस्तर बिछाया। एक छोटा-सा गैस सिलेंडर जिसके ऊपर चूल्हा लगा हुआ था, कमरे में बने स्लेप में रखा। कुछ बर्तन-भाँडे व राशन, जो लग रहा था वे गाँव से ही साथ लेकर चले थे, बोरी से निकाल कर दीवार पर बनी अलमारी में लगा दिये।
तब तक नमिता भी चाय-बिस्किट लिए पहुँच गयी।
“लग गया सामान,,,,,,!” कहते हुए नमिता ने उन्हें चाय पकड़ायी।
“अरे! आप बेवजह क्यों परेशान हुईं! हम बना लेते,,,,,। कृतज्ञता का भाव था उनकी आवाज में।
“कोई बात नहीं, कल से खुद ही तो बनाना है,,,,,,,,! मुस्कुराते हुए नमिता ने कहा।
चाय की चुस्कियों के साथ सभी अपनी-अपनी औपचारिकताएँ निभाते रहे।
“चलिए! अब मैं चलूँ, आप लोग बैठिए,,,,,!” कहती हुई नमिता अपने कमरे में आ गयी। बच्चों को हाथ-मुँह धुलवा, पढ़ाने बिठाकर वह बच्चों के लिए दूध बनाने लगी। तभी अशोक की आवाज सुन, “आ गये आप,,,” कहते हुए वह पीछे मुड़ी।
पिछले कमरों में लाइट जली देख, अशोक ने पूछा, “आ गये वो लोग,,,,?”
“हाँ! आ गये,,,,,,।” नमिता बोली। “चाय दे आयी हूँ। खाना भी भिजवा दूँगी, कह दिया है,,,,,,,।”
“ठीक है,,,,,,! पर ज्यादा मेल-जोल रखना ठीक नहीं होगा,,,।” तौलिया उठाते हुए अशोक ने कहा।
” सो तो है। आप हाथ-मुँह धो लीजिए। मैं चाय लाती हूँ,,,,,,।” कहती हुई वह किचन की ओर मुड़ गयी।
अशोक हाथ-मुँह धोकर बच्चों का होमवर्क कराने लगा, नमिता अशोक को चाय देकर किचन में व्यस्त हो गई।
किराएदारों का खाना नमिता वहीं दे आयी थी। बच्चों व पति के साथ खाना खाया और फटाफट काम समेटकर नमिता बिस्तर पर आ गयी। बच्चे सो चुके थे, अशोक अपने काम में व्यस्त था। अशोक को रजिस्टर पर झुका देख नमिता सोचने लगी, हमारी सुख-सुविधाओं के लिए कितना खटना पड़ता है अशोक को! कब काम पूरा होगा, कब अशोक सोएँगे,,,,,,,,,,,। यही सोचते-सोचते वह गहरी नींद में सो गयी।
आज ज्यादा काम नहीं था अशोक को। जल्दी काम निपटाकर वह बिस्तर की ओर बढ़ने लगा। बिस्तर की ओर बढ़ते हुए अशोक की नज़र गहरी नींद में सोई नमिता के चेहरे पर पड़ी। वह कुछ पल एकटक उसे देखता रहा। कितनी निर्दोष और मासूम-सी लग रही थी वह। कितनी उदार, दयालु और नि:स्वार्थ है नमिता! वह विचारों में खो गया। उसका चेहरा उसे और ज्यादा मासूम लगने लगा। प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और लाइट बंद कर, वह भी सो गया।
सुबह स्कूल जाते बच्चों को बाय कहने नमिता रोज की तरह गेट तक आयी।
काम पर जाते हुए अशोक बच्चों को भी स्कूल छोड़ दिया करता है।
कामिनी हाथ में पर्स लिए तेजी से बाहर निकली। काम तलाशने की तैयारी में लग रही थी।
“नमस्ते” कामिनी ने अभिवादन किया।
नमिता ने कामिनी का परिचय अशोक से कराया। कामिनी ने विनम्रता से “नमस्ते” कह अभिवादन किया।
अशोक ने भी प्रतिउत्तर में नमस्ते कहा और इजाजत ले उन दोनों को बातें करता छोड़ बच्चों को साथ ले आगे बढ़ गया।
बाय माँ! बच्चों ने हाथ हिलाया। कामिनी ने भी नमिता के साथ बच्चों को बाय कहा।
“अब मैं भी चलूँ! देखूँ, कहीं कुछ बात बन पाए,,,,,,!” कामिनी नमिता से बोली।
“कितना पढ़ी हो,,,,,,,?” नमिता ने पूछा।
“इण्टर,,,,। पिताजी थे तो किसी तरह कर लिया।
“स्कूल में पढ़ाओगी,,,,? ” नमिता बोली।
“पढ़ा लूँगी,,,,,,। पर इण्टर पास को स्कूल में रखेगा कौन,,,,,?” मुस्कुराते हुए कामिनी ने कहा।
“चलो, अभी तो तुम देखो। कल मैं मालूम करती हूँ। सुना है अमन के स्कूल में टीचर की एक जगह खाली है,,,,,।”
“थैंक्यू,,,,। ” कहती हुई कामिनी तेज कदमों से आगे बढ़ गई।
व्यस्तता के बावजूद भी नमिता एक बार फिर कामिनी की सहायता को बेचैन हो गयी। उसकी मौसेरी बहन सुधा उसके बेटे अमन के स्कूल में ही टीचर थी, जो पास में ही रहती थी। नमिता काम निपटाकर कर मौसी के यहाँ चल दी।
खाना खाते हुए नमिता ने सुधा से पूछा, “सुना है तुम्हारे स्कूल में टीचर की एक जगह खाली है!”
“हाँ है,,,,,! क्यों! कोई है क्या,,,,? सुधा ने कहा।
“हाँ है न,,,,!” नमिता ने कहा और कामिनी के बारे में सुधा को बताया फिर पूछा, मिल जाएगी? इण्टर ही पास है!”
“चल बात करके देखूँगी,,,,,,,,। और सुना क्या चल रहा है आजकल!”
फिर चला बातों का एक लंबा सिलसिला।
शाम होने से पहले ही नमिता घर लौट आयी।
गेट पर खड़ी अनीता अपनी माँ व बहिन का इंतजार कर रही थी।
“कैसी हो अनीता,,,,!” मुस्कुराते हुए नमिता ने कहा।
“माँ व दीदी नहीं आये अभी तक,,,,,।” अनीता चिंतित स्वर में बोली।
“आते ही होंगे। चिंता मत करो। चलो अंदर चलते हैं,,,,,,।” नमिता ने अंदर चलने का इशारा किया।
तभी अनीता की नज़र कामिनी और माँ पर पड़ी। चहकते हुए उसक मुँह से निकला, “आ गये,,,,।”
नमिता पीछे घूमी, देखा, दोनों ही बड़ी तेजी से चली आ रही हैं।
पास पहुँच कर कामिनी मुस्कुरायी। नमिता ने भी मुस्करा कर कहा, “अनीता बहुत देर से गेट पर खड़ी आप लोगों का इंतजार कर रही थी, चिंतित भी थी, तभी मैं इसके साथ ही खड़ी हो गई,,,,।” साथ ही उसने कामिनी से ‌पूछा, “बात बनी कहीं,,,,,,,,,,,?”
“नहीं अभी नहीं। लेकिन एक जगह से आश्वासन तो मिला है,,,,।” कामिनी ने बताया।
नमिता ने अपने व सुधा के बीच हुई बातों को कामिनी से साझा किया और उम्मीद भी जताई।
“आइए, अंदर आइए। चाय पीकर जाइएगा,,,,,।” कामिनी की माँ ने निवेदन किया।
“नहीं फिर कभी। अभी मैं चलूँ, पहले ही काफी लेट हो गई हूँ,,,,,।” नमिता अपने घर की ओर मुड़ गयी।
अशोक और बच्चे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। अशोक चाय पी चुका था क्योंकि उसे पता था नमिता मौसी के यहाँ से चाय पीकर ही लौटेगी।
नमिता अंदर पहुँची, देखा, अशोक वैभव और अमन का घोड़ा बना कमरे के चक्कर मार रहा है। बच्चे जोर-जोर से गा रहे थे, “चल मेरे घोड़े टिक-टिक टिक,,,,,,।”
माँ,,,,! अशोक की पीठ पर ऐंठकर बैठते हुए वैभव ने नमिता से अपनी खुशी बाँटी।
नमिता मुस्कुराने लगी। बच्चों को प्यार से अपनी पीठ से उतार अशोक नमिता की ओर घूमा और पूछा,
“मौसी ठीक हैं,,,,,?”
“हाँ सब लोग ठीक हैं,,,,,,,।” कहते हुए नमिता बोली, “चाय पी आपने,,,,,!”
“हाँ! मैं पी चुका,,,,,।” कहकर तौलिया लिए वाॅशरूम की ओर बढ़ गया।
नमिता अपने काम में जुट गई। आज अशोक की पसंद का खाना, अशोक की विशेष फरमाइश पर जो बनाना था उसे।
“आँटी,,,,,!” आवाज सुन, खाना परोसती नमिता पीछे घूमी। देखा अनीता हाथ में कटोरा लिए खड़ी थी।
“करेले भेजे हैं माँ ने,,,,,।” कहते हुए उसने कटोरा आगे बढ़ाया।
“अरे वाह! भरवाँ करेले,,,,,!” नमिता ने कटोरा लिया और बोली, “बैठो अनीता,,,,!”
“अभी नहीं,,,,!” माँ खाना परोसे बैठी है। अनीता ने कहा और बाहर निकल आई।
अगले दिन सुधा ने नमिता से कामिनी को स्कूल भेजने की बात कही। बताया कि प्रिंसीपल उसके पढ़ाने का तरीका देखना चाहती है। पसंद आया तो रख लेंगी। थोड़ा तैयारी करके आए कहना।
कामिनी तेज दिमाग, थ्रो आउट फर्स्ट क्लास, व्यवहार कुशल लड़की तो थी ही। नमिता को विश्वास था कि कामिनी को नौकरी मिल ही जाएगी।
पर फिर भी सुधा के कहे अनुसार उसने उससे तैयारी करके जाने को कहा।
कामिनी ने हामी भरी और अगले दिन वह अमन के स्कूल पहुँच गई।
उसके बात करने के तरीके व हाजिर जवाबी का जबरदस्त प्रभाव पड़ा।
“ठीक है! कल से तुम जाॅइन कर सकती हो,,,,,!” मुस्कुराते हुए प्रिंसिपल ने कहा।
“धन्यवाद,,,!” कहते हुए कृतज्ञता ज्ञापित की कामिनी ने और अभिवादन कर बाहर निकल आई।
बहुत खुश थी कामिनी। मिठाई का डिब्बा ले वह नमिता को खुशखबरी देने व आभार व्यक्त करने पहुँच गयी। नमिता को मिठाई का डिब्बा दे उसने आभार व्यक्त किया। उसकी खुशी सँभले नहीं सँभल रही थी। नमिता ने भी भावुक हो उस गले लगा लिया।
“पार्टी हो जाय,,,,,!” नमिता ने कहा! “बिल्कुल,,,!” कहते हुए कामिनी ने खुशी व्यक्त की।
अगले दिन कामिनी ने सबके लिए खाना बनाया। हँसी-खुशी का माहौल था। नमिता व बच्चों को खुश देखकर अशोक भी खुश था।
सुबह कामिनी स्कूल के लिए बाहर निकली। देखा, अशोक बच्चों को मोटरसाइकिल पर बैठा रहा था, नमिता भी वहीं खड़ी थी।
कामिनी ने कहा, “यदि आप लोग चाहें तो अब बच्चे मेरे साथ भी आ-जा सकते हैं।”
“पापा के साथ ही ठीक हैं कामिनी! स्कूल रास्ते में ही पड़ता है। छोड़ते हुए चले जाते हैं। छुट्टी में मैं बच्चों को लेने जाती हूँ। तब हम साथ ही‌ आ जाया करेंगे। बच्चों के बहाने मेरा भी घूमना हो जाता है,,,,,,।” नमिता ने कहा।
“ठीक है,,,,,!” कामिनी मुस्करायी और आगे बढ़ गयी।
घड़ी में समय देख नमिता बच्चों को लेने स्कूल पहुँच गयी। कामिनी बच्चों का हाथ पकड़े आती दिखी। बच्चों ने दौड़कर नमिता का हाथ पकड़ लिया।
नमिता कामिनी से उसके स्कूल के पहले दिन का अनुभव पूछने लगी।
कामिनी शुरू हो गई। हँसते-हँसाते बातें करते वे लोग घर पहुँच गए।
अब तो यह क्रम रोज-रोज चलता रहा। न जाने कब दोनों में गहरी दोस्ती हो गयी। अब तो दोनों जहाँ जाते, साथ-साथ जाते। नमिता भी अपनी रिश्तेदारी व जान-पहचान के सभी कार्यक्रमों में कामिनी को साथ ले जाती। कामिनी भी नमिता के साथ बहुत खुश रहती। कहीं भी जाना हो, कुछ भी करना हो, चाहे कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, कामिनी सहर्ष स्वीकार करती।
नमिता की हैल्प से उसे काफी ट्यूशन्स भी मिल गयी थीं। अमन और वैभव की पढ़ाई का जिम्मा भी अब कामिनी ने ही ले लिया था।
नमिता व कामिनी की खूब गपशप चलती। यह सिलसिला लंबा निकल चला। देखते ही देखते डेढ़-दो साल कब निकल गये उन्हें पता ही नहीं चला।
एक दिन कामिनी की माँ ने बताया कि उन्हें एक मकान तो मिला है, पर पानी की दिक्कत है। हैंडपंप घर से बाहर लगा है। पानी बाहर से भरकर लाना होगा। एक बार कामिनी को दिखा दूँ। पसंद आ जाए तो हम जल्दी चले जाएँगे।
सुनकर नमिता को बहुत बुरा लगा। वह सोचने लगी, कि सब कुछ तो इतने अच्छे से चल रहा है। हँसते-हँसाते कब इतना समय बीत गया पता ही नहीं चला! बच्चे और अशोक भी खुश हैं। बच्चों की पढ़ाई भी अच्छे से चल रही है। फिर,,,,,!
बीच में ही बात काटकर नमिता बोली, “जब ढंग का मिले तभी देखिएगा! जहाँ सुविधा न हो वहाँ जाकर क्या फायदा,,,,,!”
कामिनी की माँ प्यार भरी नजरों से नमिता को देखने लगी और दोनों अपनत्व के भाव में मुस्करा दीं। तभी फोन की घंटी बजी। कामिनी की मौसी की काॅल थी।
“नमस्ते मौसी,,,,!” कामिनी ‌मौसी से बातें करने लगी। माँ व अनीता भी बड़ी उत्सुकता से ‌उनकी बातें सुन रही थीं।
मौसी ने बताया कि उनकी बेटी का रिश्ता तय हो गया है और सगाई में उन सभी को जल्द ही आना है।
मुश्किल के दौर से गुजर रहे उन लोगों में सबका जाना तो मुमकिन नहीं था। इसलिए कामिनी ने अकेले ही आने की बात कहकर फोन माँ को पकड़ाया।
नमिता पर नज़र पड़ते ही कामिनी मुस्कुराते हुए बोली, “तुम चलोगी नमिता! काजल की सगाई में,,,,।”
“हें,,,! नमिता के मुँह से निकला। अरे! मैं कैसे जा सकती हूँ भला! कमाल कर रही हो!” नमिता झट से बोल पड़ी।
“कमाल की क्या बात है इसमें! दो-तीन दिन की ही तो बात है! जाएँगे और आएँगे! क्या परेशानी है!”
” अरे नहीं! मैं नहीं जा सकती। पहली बात तो, ये ही नहीं जाने देंगे और दूसरे बच्चों को छोड़कर जाना संभव ही नहीं है,,,।” नमिता ने बात स्पष्ट की।
“क्यों! बच्चों की क्या दिक्कत है वो तो पापा के साथ बड़े मजे में रह लेते हैं और फिर अनीता भी तो है उनसे खेलने के लिए। घुले-मिले भी खूब हैं उससे,,,,,।” कामिनी ने मानो एक समस्या का हल ही ढूँढ दिया। दूसरी बात रही अशोक जी से पूछने की, तो वो तो तुम्हें किसी भी चीज के लिए मना कर ही नहीं सकते। चलो न! प्लीज़,,,,,!, प्लीज़,,,,,!” उसे मनाते हुए कामिनी मिन्नत करने लगी।” फिर माँ भी तो यहीं हैं न! तुम घर की चिंता छोड़ो। ये लोग सब देख लेंगे। तुम तो बस अशोक जी को मना लो,,,,,।”
अपनी बात मनवाने के लिए कामिनी चुटकी लेते हुए बोली, “मेरे साथ जाने में कोई एतराज़ तो नहीं है न,,,,!”
“हट पगली! एतराज़ क्यों होने लगा,,,,,! इनकी बात है भेजें कि न भेजें!
“भेज देंगे,,,,!” कामिनी ने ‌विश्वास से ‌कहा।
“चल पूछकर देखती हूँ,,,,।”
“प्लीज,,,!” कामिनी ने आग्रह किया।
अशोक नमिता की बात सुनकर अवाक रह गया।
“तुम जानती हो! तुम क्या कह रही हो! बिना जान-पहचान किसके साथ जाने की बात कह रही हो,,,,,!”
“जानती हूँ। पर हम तो कामिनी के पूरे परिवार से,‌ यहाँ तक की रिश्तेदारों से भी तो परिचित हैं। और फिर कामिनी की माँ और अनीता सब तो यहीं पर हैं। बच्चे भी खूब घुले-मिले हैं उनसे। दो-तीन दिन की ही बात है! एक दिन आना, एक दिन जाना और एक दिन रहना। कुल तीन दिन,,,!” नमिता बड़े सहज भाव से बोली।
अशोक आश्चर्य से नमिता के चेहरे पर नजर गड़ाए हुए था।
“आप क्या सोच रहे हैं, मैं जानती हूँ‌! पर ये तो अब आप भी जान ही गये हैं न! कि कितने सभ्य व मददगार लोग हैं ये। दूसरी बात! मैं तो मना तो कर ‌ही चुकी हूँ। पर कामिनी ज़िद कर रही है। मना भी करूँ तो कैसे! क्योंकि आज तक इन लोगों ने, कभी भी किसी भी काम के लिए ‘ना’ नहीं कहा बल्कि बिना बुलाए मदद के लिए आ गये। बच्चों की पढ़ाई का भी पूरा ध्यान रखते हैं। इस समय कामिनी अकेले की वज़ह से मुझे साथ चलने के लिए कह रही है, मिन्नत भी कर रही है, मैं कैसे “ना” कह दूँ आप ही बताइए!”
“मानता हूँ, अच्छे लोग हैं पर फिर भी सोच-समझकर ही क़दम उठाना चाहिए। तुम नहीं समझती। क्योंकि जानती हो मैं तुम्हारे हर निर्णय का सम्मान करता हूँ।
मुझे तुम पर अपने से ज्यादा विश्वास है,हर क़दम पर मैं तुम्हारे साथ हूँ। लेकिन,,,,,,,,, फिर भी।”
“तो ठीक है न! आपका प्यार व विश्वास मेरा बाल-बाँका भी नहीं होने देगा! प्लीज,,,! बताइए! चली जाऊँ,,,,,?”
“चली जाओ! मगर ध्यान से,,,,।” अशोक ने कहा।
नमिता ने कामिनी को बताया कि वह उसके साथ चल रही है।
कामिनी खुशी से उछल पड़ी और नमिता के गले लग गयी।
“क्या पहनने वाली हो तुम,,,,!” नमिता ने कामिनी ‌को अपने अलग करते हुए उत्सुकता से पूछा।
” देखती हूँ,,,! पर तुम! तुम तो वही पिंक और ग्रे कलर की साड़ी पहनना। खूब फबती है तुम पर,,,,!” कामिनी ने नमिता को सुझाया।
अशोक ने कामिनी और नमिता को गाड़ी में बैठाया, सावधानी बरतने और हर घंटे फोन करने की हिदायत देते हुए मुस्कराकर उन्हें विदा किया।
घर वापस लौटकर अशोक ने अमन व वैभव को तैयार किया। अनीता टिफिन बनाकर ले आयी थी।
अशोक ने बच्चों को टिफिन पकड़ाये और उन्हें स्कूल छोड़ते हुए अपने काम पर चला गया।
बाहर के नज़ारों में मस्त, बातों में मशगूल,नमिता और कामिनी भी तेज रफ्तार बस के साथ दौड़ी जा रहीं थीं।
हर घंटे अशोक और नमिता फोन पर एक-दूसरे से संपर्क में बने हुए थे। नमिता का उत्साह अशोक को आनंदित कर रहा था। कामिनी ने नमिता से अशोक को यह भी बताने को कहा कि आगे नेटवर्क की दिक्कत हो सकती है इसलिए वे चिंता न करें। जहाँ-जहाँ नैटवर्क मिलेगा हम फोन करते रहेंगे।
खेतों की हरियाली, हरे-भरे जंगलों से गुजरते, रोजमर्रा की बातों में मस्त, हँसते-बोलते, खाते-पीते सफर का भरपूर आनंद ले रही थीं दोनों।
नेटवर्क की दिक्कत कई बार हुई। लेकिन फिर भी सफर समाप्ति के लगभग एक घंटे तक सूचनाओं का आदान-प्रदान भी बहुत अच्छे से होता रहा।
अशोक भी विश्वस्त था कि वे सकुशल पहुँच जाएँगी पर फिर भी एक चिंता-सी बनी हुई थी। क्योंकि नमिता पहली बार अशोक के बगैर घर से बाहर निकली थी।
रास्ते में घना जंगल पड़ा, जिसे पार करना मानो नेटवर्क के बस का भी नहीं था। वहीं से नमिता का संपर्क फिर अशोक से नहीं हो पाया।
नमिता कामिनी के साथ कम्फर्टेबल महसूस कर रही थी। यह सफर उसे रोमांचित कर रहा था। वह बहुत उत्सुक थी कि कामिनी का गाँव देखेगी, मौसी व काजल से मिलेगी, जिनसे वह कई बार फोन पर बातें भी कर चुकी है। फिर सगाई का फंक्शन सभी कुछ आनंदित करने वाला था।
शाम लगभग चार बजे बस ने उन्हें एक गाँव में उतारा और आगे बढ गयी।
अब दोनों आटो में बैठे उसके चलने का इंतजार कर रही थीं। सवारी भरते ही आटो भी खड़-खड़, खड़-खड़,खच-खच,खच-खच की आवाज करता हिचकोले खाता जंगल पार करने लगा।
नमिता को सहमा देख कामिनी ने उसका ध्यान अपनी ओर खींचा, “क्या बात है नमिता! कोई दिक्कत? खामोश हो,,,,!”
“नहीं तो,,,,!” नमिता ने बात सँभाली। “मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है,,,,,,।”
कामिनी ने भी मुस्कुराते हुए कहा, “दो ही दिन की तो बात है। परसों तो वापसी ही है,,,! देखना बड़ा मजा आएगा गाँव में,,,,,,।”
नमिता भी मुस्करा‌ दी।
आटो में बैठी सवारियाँ दोनों को अजनबियों की तरह देख रही थीं।
जंगल पार कर लगभग दस मिनट बाद कामिनी ने आटो रुकवाया सामान उतारा, पैसे दिए और नमिता को साथ ले आगे बढ़ गयी।
खेतों में फैली हरियाली व दूर-दूर बने घर, वहाँ हल्की बस्ती होने का एहसास करा रहे थे।
कामिनी सड़क से थोड़ी ही दूर खेत पर बने एक मकान में पहुँची।
“मौसी!,,,,,,,।” कामिनी ने आवाज दी।
“पहुँच गये तुम लोग!,,,।” कहते हुए एक उम्रदराज महिला बाहर निकली।
कामिनी ने झुककर प्रणाम किया।
नमिता ने भी “प्रणाम मौसी!” कह अभिवादन किया।
“खुश रहो,,,,,!” आओ! अंदर आओ! मौसी ने कहा और सोफे की ओर इशारा कर दोनों को बैठने के लिए कहा।
“मौसी ये नमिता है,,,,।” सोफे पर बैठते हुए कामिनी बोली।
“हाँ-हाँ! पहचान रही हूँ! इतनी बातें जो सुनी हैं तुमसे! भगवान भला करे इनका, घनी मुसीबत में साथ दिया तुम लोगों का,,,,,।” कहती हुई मौसी पानी लेने किचन की ओर मुड़ गई।
घर काफी बड़ा व सुंदर बना था। आधुनिक सुख-सुविधाओं से सुसज्जित। नमिता बड़े ध्यान से देख रही थी।
“कैसा लगा,,?” कामिनी ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“अच्छा है,,,,।” नमिता ने भी कामिनी के अंदाज में ही उत्तर दिया।
पानी के गिलास थमाते हुए मौसी ने पूछा, “सफर कैसा रहा,,,,?”
“अच्छा था मौसी,,,,,!” बस जंगल का रास्ता जरा अखरा। काजल कहाँ है,,,? ” कामिनी ने पूछा।
“शहर गयी है करुणा के यहाँ। थोड़ी खरीदारी रह गई थी, वही करनी है। सुबह आ जाएगी,,,,,।” कहती हुई मौसी किचन में गयी और गरमागरम चाय, समोसे, पकौड़ियाँ, पुदीने की चटनी और मिठाई वगैरह लिए वापस लौटी।
गरम समोसे और पुदीने की चटनी ने पूरा कमरा महका दिया।
एक तो सफर की थकान, ऊपर से भूख। प्लेट्स सामने देख रुक नहीं पायीं दोनों। मौसी ने प्लेट्स बढ़ाईं। औपचारिकताओं को दर- किनार कर, दोनों ने छककर खाया। अदरक की चाय ने तो उनकी थकान ही गायब कर दी।
पेट पूजा कर कामिनी ने एक कुशन उठाया और सामने पड़े पलंग पर पसर गई। तुम भी आ जाओ नमिता! कामिनी ने कहा।
काफी देर तक वे सब यहाँ-वहाँ की बातें करते रहे।
“तुम दोनों गपशप करो, मैं खाने का देखती हूँ,,,,।” मौसी ने कहा और किचन में चली गई।
कामिनी और नमिता आराम से लेटी गपशप कर रहीं थीं। कि अचानक मौसी की चीख सुनकर दोनों घबराकर किचन की ओर भागीं। देखा, मौसी सिर पकड़े ज़मीन पर बैठी थी। उनके चेहरे पर दर्द के भाव साफ नज़र आ रहे थे।
“क्या हुआ मौसी,,,,,,!” उनके मुँह से निकला। दोनों ने मौसी को उठाया और सहारा देकर अंदर ले लायीं, बिस्तर पर लिटाया, पास ही रखा बाम लेकर नमिता मौसी के सिर पर लगाने लगी। कामिनी मौसी के हाथ-पैरों को मसलने लगी। लेकिन मौसी पर कोई असर पड़ता न देख कामिनी घबरा गई।
“इन्हें डाक्टर के पास ले चलते हैं,,,,,,,,,।” नमिता ने कहा।
“हाँ‌ मुझे भी लगता है डाक्टर को दिखाना ही पड़ेगा,,,,,।” कामिनी बोली।
अचानक बाहर मोटरसाइकिल के रुकने की आवाज सुन कामिनी आशान्वित हो, बाहर की ओर भागी।
“अरे किशोर तुम,,,,,!” कामिनी का प्रसन्नता व घबराहट मिश्रित स्वर उभरा।
“क्या हुआ कामिनी,,,,!” यह स्वर किशोर का‌ था।
“अच्छा हुआ जो तुम आ गए किशोर,,,,! मौसी की तबीयत अचानक खराब हो गई है। उन्हें डाक्टर के पास ले जाना है। जल्दी करो किशोर,,,,,!” कामिनी एक ही साँस में सब कह गयी।
“अरे! क्या हुआ उन्हें? कहाँ हैं मौसी?” कहते हुए किशोर ने‌ अंदर आने को क़दम बढ़ाया।
“नहीं-नहीं ! तुम मोटरसाइकिल स्टार्ट करो, मैं लेकर आती हूँ,,,,।”
कामिनी बड़ी तेजी से अंदर की ओर भागी और नमिता के सहारे से मौसी को बाहर ले लायी। उन्हें सहारा‌ देकर मोटरसाइकिल पर बैठाया।
“चलें,,,!” पहले से ही मोटरसाइकिल स्टार्ट किए तैयार खड़ा,किशोर बोला।
कामिनी ने नमिता की ओर विवशता भरी नजरों से देखा कि उसे मोटरसाइकिल में साथ ले जा सकना संभव नहीं होगा।
नमिता तुरंत समझ गयी और बोली, “अरे! तुम लोग तुरंत जाओ, मौसी बहुत परेशान हैं। घर मैं देख लूँगी प्लीज़,,,,।”
“थैंक्यू नमिता! डाक्टर पास ही में है। हम अभी लौट आते हैं। कामिनी ने कहा।
ओके! संभलकर जाना। नमिता बोली।
“जल्दी करो किशोर,,,,,!” कहते हुए कामिनी मौसी को सहारा देती हुई खुद भी मोटरसाइकिल पर बैठ गई।
मोटरसाइकिल आगे बढ़ा गयी।
नमिता मौसी के लिए ‌ घबरायी हुई-सी, दौड़ती हुई मोटरसाइकिल को तब तक टकटकी लगाए देखती रही जब तक कि वह आँखों से ओझल न हो गई।
अंदर आ नमिता ने कमरे की सिटकनी चढ़ायी और किचन में मौसी का बिखरा काम समेटने लगी।
मौसी सब्जियाँ छौंक चुकी थी, रोटियों के लिए आटा मलने को परात में रखा था। नमिता ने आटा मला। सिंक में रखे बर्तन साफ कर रोटियाँ सेकने लगी।
पर उसे लगातार मौसी की चिंता सताए जा रही थी, कि न जाने मौसी कैसी होंगी।
“हे ईश्वर! सब सही हो,,,,,,।” वह मन ही मन भगवान से प्रार्थना भी कर रही थी।
रोटियाँ सिक चुकीं थी, घी लगाकर रोटियाँ हाॅटपाॅट में रख, वह कमरे में आ, बेसब्री से उन लोगों का इंतजार करने‌ लगी।
लगभग डेढ़ घंटा बीत चुका था। नमिता की मौसी को लेकर चिंता बढ़ने लगी। उसने तुरंत फोन उठाया, पर नेटवर्क न होने के कारण काॅल नहीं लग पायी। उसने कई बार‌ फोन‌ लगाया पर सब व्यर्थ।
बेचैनी और घबराहट बढ़ी तो वह घर के अंदर ही यहाँ-वहाँ चक्कर काटने लगी। अचानक उसकी नज़र एक कमरे में पड़ी, जो लग रहा था किसी की सुहागरात के लिए सजाया गया हो।
वह हैरान थी कि वह कमरा आखिर किसके लिए हो सकता है! वह सोचने लगी कि काजल की शादी में तो अभी काफी दिन हैं, फिर काजल का कमरा तो उसकी ससुराल में ही सजना चाहिए न! उसकी समझ में कुछ नहीं आया।
रात गहराने लगी थी।चारों ओर दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा था। उसकी घबराहट और बढ़ने लगी।
एक तो अनजान जगह, उस पर नेटवर्क न होने की वज़ह से किसी से संपर्क भी नहीं हो पा रहा था। वह भयभीत-सी होने लगी। कामिनी का भी अब तक कोई अता-पता नहीं था।
सहमी-सी वह पलंग के एक कोने में दुबकी, बेसब्री से कामिनी की प्रतीक्षा करने लगी।
उसके मन में बुरे-बुरे खयाल आने लगे। कि कहीं मौसी की तबियत ज्यादा खराब तो नहीं हो गई।,,,,,,।, कहीं,,,,,,!, कहीं उसने कामिनी के साथ आकर गलत तो नहीं किया,,,,,। आदि-आदि।
“नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता,,,,,,!” अंतरमन में आते-जाते अशुभ विचारों का वह स्वयं ही खंडन करने लगी।
घबराहट में उसका दिमाग काम नहीं कर पा रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे!
तभी दरवाजे पर हुई दस्तक सुन उसकी जान में जान-सी आयी।
“कामिनी,,,,,,!” कहते हुए वह कूदकर उतरी और दौडकर सिटकनी खोली।
पर यह क्या! वहाँ तो कामिनी की बजाय एक अधेड़ उम्र आदमी खड़ा था। जो सूटेट-बूटेट, खुशबू में नहाया, किसी तैयारी से आया लगता था।
नमिता को देखकर वह ऐसे मुस्करा रहा था जैसे कि वह उसी की प्रतीक्षा में बैठी हो।
नमिता का पूरा शरीर काँपने लगा। काँपते हाथों से उसने वापस सिटकनी चढ़ाने का प्रयास किया।
पर अजनबी ने दरवाजे को हाथ से रोकते हुए कहा। “घबराओ नहीं। “मैं ही हूँ, जिसके लिए कामिनी तुम्हें यहाँ लायी है। मैंने ही तुम्हारी माँ को पैसे दिए हैं,,,,,,।”
यह सुनते ही उसके होश फाख्ता हो गए।
“क्या बकवास कर रहे हो तुम!!!!!” मुँह से चीख निकल गई।
“कौन हो तुम!,,,,,।कामिनी कहाँ है?,,,,।” घबराई-सी वह बाहर की ओर भागी। यह सब क्या हो रहा है! उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसे बेहोशी-सी छाने लगी थी। स्वयं को बचाने के लिए वह सड़क पर बदहवास-सी दौड़ने लगी।
अजनबी की भी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, कि खुद ही रजामंदी देने व पैसे लेने के बावजूद भी यह स्त्री आखिर ऐसा क्यों कर रही है! यह इतनी डरी व घबरायी हुई क्यों है! क्या हो सकता है,,,,,,,,,,,,!
अचानक अजनबी का दिमाग घूमा कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं! कहीं इसके साथ कोई धोखा तो नहीं हुआ! इन सब विचारों ने अजनबी को विचलित कर दिया।
नहीं-नहीं, ऐसा तो हो ही नहीं सकता! उसके हाथों ऐसा पाप हो! संभव नहीं! उसके माता-पिता ने तो‌ ऐसे संस्कार कभी दिये ही नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है! उसे अपराध बोध-सा होने लगा।
वह तुरंत उस दिशा की ओर दौड़ पड़ा जिस ओर नमिता बदहवास-सी दौड़ी जा रही थी।
उसे अपनी ओर आता देख नमिता ने और तेज दौड़ना चाहा पर वह लड़खड़ा कर वहीं गिर पड़ी। डर से उसका शरीर थरथराने लगा। वह वहीं से हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगी। रोते हुए उसके पास न आने की विनती करने लगी।
अजनबी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे! उसके कारण किसी निर्दोष की यह हालत कैसे हो सकती है! बहुत दुखी हो गया वह। उसे अपने-आप से ही घृणा होने लगी।
“रुको,,,,! रुको,,,,,!डरो नहीं,,,,,। मेरी बात सुनो,,,,! मैं सब कुछ समझ चुका हूँ, तुम्हारे साथ धोखा हुआ है, मैं जान गया हूँ। इसलिए कृपया और आगे मत भागो! आगे बीहड़ जंगल है। महिलाओं के लिए तो यह जगह बहुत सुरक्षित भी नहीं है। प्लीज़ मेरी बात सुनो! भागो मत। वहीं रुक जाओ,,,,,,,! ”
उसकी बातें सुनकर एक पल तो नमिता को सहारा-सा मिला किंतु दूसरे ही पल वह यह सोचकर सिहर उठी कि कहीं यह उस व्यक्ति की कोई चाल तो नहीं। वह उठकर फिर से भागने लगी। लड़खड़ाती, गिरती-पड़ती,भय से काँपती, रोती-गिड़गिड़ाती वह बस भागे जा रही थी।
वह व्यक्ति अच्छी तरह समझ पा रह था कि किसी भी स्त्री के लिए ऐसी स्थिति में किसी अजनबी पर विश्वास करना कितना मुश्किल हो सकता है। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे कैसे विश्वास दिलाये कि वह वास्तव में खुद भी बहुत दुखी है। कैसे विश्वास दिलाये कि वह उसे इस संकट से बाहर निकलने में उसकी मदद करना चाहता है।
किंकर्तव्यविमूढ़-सा वह वहीं ठिठककर खड़ा हो गया। कुछ पल सोचकर वह वहीं से फिर उसे समझाने का प्रयास करते हुए बोला, ” देखो! मैं समझ सकता हूँ कि इस स्थिति में तुम्हारा किसी अजनबी पर विश्वास कर पाना बहुत मुश्किल है। लेकिन अब तुम वहीं से मेरी बात ध्यान से सुनो। मैं यहाँ से एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ाऊँगा। तुम मुझ पर विश्वास करो। विश्वास करने के अलावा तुम्हारे पास अब कोई दूसरा चारा है ही नहीं। इसलिए प्लीज़ हिम्मत रखो और धैर्य के साथ मेरी बात सुनो,,,,,,।” प्लीज,,,,,,,।
वह आगे बोला, “देखो! ” गौर से पहले अपने चारों ओर नज़र डालो और बताओ कि तुम्हें अँधेरे के सिवा कुछ दिखाई दे रहा है क्या? नहीं न! तो बताओ भागकर जाओगी कहाँ! बताओ! माना चली भी गयी, तो तुम्हारी सुरक्षा की क्या गारंटी है ! इसलिए अब ध्यान से मेरी बात सुनो, इसी में तुम्हारी भलाई है। पहले तो मुझे यह बताओ कि तुम कौन हो! कहाँ रहती हो! कामिनी को तुम कैसे जानती हो! फिर मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम्हारे साथ धोखा कैसे और क्यों हो गया है। तुम्हीं नहीं, मैं भी इस षड्यंत्र का शिकार हुआ हूँ। यकीन मानो, तुम्हारी इस स्थिति के लिए अनजाने में ही ‌सही, मैं खुद ही जिम्मेदार हूँ। मुझे खुद से घृणा-सी हो रही है। अपराध बोध से मैं दबा जा रहा हूं। प्लीज़ मुझे क्षमा कर दो। प्लीऽऽऽज़,,,,,।”
उसके आहत स्वर से नमिता के मन में आस-सी जगी। उसने थोड़ा आगे बढ़कर डरते-डरते, रोते हुए ही अजनबी को अपना पता और कामिनी के बारे में संक्षिप्त रूप से बता दिया।
वह बोला, “काश! कि मैं कामिनी के षड्यंत्र को समझ पाता! उसकी व्यवहार कुशलता के चलते मुझे कहीं से कहीं तक शक की कोई गुंजाइश लगी ही नहीं,,,,,!”
उसने आगे बताया, “कामिनी से मेरी मुलाकात एक सफ़र के दौरान हुई। सरल, सौम्य, हँसमुख व्यवहार के चलते वह मुझे बहुत अच्छी लगी। बातों ही बातों में हम लोग इतने घुल-मिल गए कि एक-दूसरे के घर-परिवार आदि के बारे में जानकारी आदान-प्रदान करते रहे। जब उसे पता चला कि मेरा परिवार किसी हादसे का शिकार हो गया है और मैं बिल्कुल अकेला रह गया हूँ, उसकी आँखें भर आयीं। वह बहुत दुखी हुई। कुछ पल शाँत रहने के बाद वह अचानक बोली, “तो आप दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेते,,,,,!”
“शादी,,,,,!” मै जोर से हँसा और आँखें बंद कर, अपने मुँह को हाथों से ढक, थोड़ी देर शाँति के‌ लिए बैठ गया। अचानक मेरे मन में भी यह विचार आया कि यदि ऐसा हो जाए तो इससे अच्छा मेरे हक़ में और क्या हो सकता है!
मैंने आँखें खोली तो देखा, वह मुझे ही देख रही थी।
“कुछ सोचा आपने! उसने कहा। मै सही कह रही हूँ न! जहाँ आपके पास पैसों की कोई कमी नहीं। वहीं कुछ परिवार ऐसी तंगहाली में जी रहे हैं कि कहीं से पैसा मिले तो वे भर पेट खा पाएँ!”
“मतलब,,,,,,,!” मैंने कहा।
उसने बताया कि उसके गाँव में कई ऐसे परिवार हैं, जो गरीबी के साथ-साथ अपनी बेटियों के मायके में पड़े होने से और ज्यादा दुखी हैं। “तो क्यों न आप जैसे लोग उनकी उनकी बेटियों से शादी कर उन्हें आर्थिक सहायता भी प्रदान कर दें।” उसने कहा। “इससे आपको तो जीने का सहारा मिलेगा ही, साथ में किसी को आर्थिक मदद व उनकी विधवा या परित्यक्त बेटियों का घर भी बस जाएगा,,,,।”
उसकी बुद्धमत्ता व सकारात्मक सोच के आगे मैं नतमस्तक हो गया।
‌ निराश जीवन में आशा की किरण दिखाई दी। मैंने कहा, “इससे अच्छी बात तो कुछ हो ही नहीं सकती,,,,,,! तुम्हारी नज़र में है कोई ऐसा परिवार!”
“हाँ है न! मेरी मौसी की बेटी,,,,,,,,,,,,।” और उसने अपनी मौसी की सारी दास्तान मुझे कह सुनाई। जिसे सुनकर मैं बहुत दुखी हुआ पर खुशी और आशा की लहर मेरे अंदर दौड़ने लगी। किसी परिवार के मददगार बनने व खुद का भी जीवन सँवर जाने की बात को लेकर।
इतना ही नहीं उसने अपने कहे अनुसार मुझे अपनी मौसी व उनकी बेटी से बातें भी करवायीं। दोनों की सहमति मिलने पर ही मैंने क़दम बढ़ाने की हिम्मत करी जो आज मेरे लिए ही शर्मिंदगी का कारण बन गयी।
विश्वास करो! मैं तुमसे बात करने की हिम्मत भी बड़ी मुश्किल से ही जुटा पा रहा हूँ। मेरा विश्वास करो, मैं भी बहुत दुखी हूँ। शर्मिंदा हूँ तुमसे। मुझे माफ़ कर दो और मेरी बात सुनो।
मुझे अपने बारे में बताओ, अपना पता बताओ ताकि समय रहते तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा दिया जाय। सब कुछ सही‌ हो‌ जाए। तुम अपने घर पहुँच जाओ। तुम्हारे यहाँ तक पहुँचने की किसी को कानों-कान तक खबर भी न लगे। प्लीज़।”
वह दुविधा में पड़ी रोए जा रही थी। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कामिनी उसके साथ ऐसा कर सकती है।
अब तक कामिनी का कोई अता-पता न देख उसे उस अजनबी पर विश्वास करने के सिवा और कोई रास्ता नज़र नहीं आया । उसने रोते-रोते ही अपना पता और अपने बारे में उसे बताया साथ ही यह भी कि वह कैसे कामिनी से मिली और यहाँ तक पहुँच गई। उसने हाथ जोड़कर विनती की कि वह उसे उसके घर पहुँचा दे।
“यही तो मै भी कह रहा हूँ कि रात ढलने से पहले ही तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ ताकि मैं भी अपराध बोध से मुक्त हो सकूँ,,,,,,।” उसने कहा।
” मुझे यह समझते तनिक भी देर नहीं लगी कि तुम एक उच्च संस्कारों वाले सुसंस्कृत परिवार से हो। मेरा विश्वास करो और बिना देरी किए मेरे साथ चलो ताकि मैं समय से तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ। ”
दुख,भय और शँकाओं से घिरी वह आने वाले पलों के लिए भयभीत तो थी ही किंतु फिर भी वह किसी भी तरह अशोक के पास पहुँच जाना चाहती थी।
उसे कशमकश में देख अजनबी बोला, “अब चलें,,,!”
वह खामोश खड़ी निर्णय लेने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। क्योंकि पहला निर्णय भी उसी का ही था।
“ठीक 10 बजे एक गाड़ी सीधे तुम्हारे गाँव तक जाती है। अगर समय गँवाया तो उससे भी हाथ धोना पड़ेगा। और आज की रात तुम्हें यहीं बितानी पड़ेगी, जो मैं नहीं समझता कि तुम्हारे हित में होगा। अब निर्णय तुम पर है, जो सही समझो।” अजनबी ने आगाह करते हुए कहा।
सुनते ही झटका-सा लगा उसे। वह बोली, “नहीं! मुझे यहाँ नहीं रुकना, मुझे जाना है। मुझे अपने अशोक के पास, अपने घर जाना है,,,,,,,,।” दुख व भय मिश्रित हाव-भाव थे उसके।
“तो ठीक है! मैं मोटरसाइकिल निकालता हूँ। तुम यहीं रुको,,,,,,।” कहते हुए वह तेजी से चलता हुआ, उसी मकान की ओर मुड़ गया जिसमें कामिनी उसे लायी थी।
मोटरसाइकिल लिए अजनबी जैसे-जैसे पास आ रहा था। उसकी धड़कनें अनियंत्रित हो रही थीं।
मोटरसाइकिल नजदीक आकर रुक गयी।
“बैठो,,।” अजनबी ने कहा।
निरीह प्राणी-सी खड़ी-खड़ी वह संदेह भरी नजरों से उसे तके जा रही थी।
“बैठो,,,,।” साढ़े नौ बज चुके हैं। ठीक दस बजे बस चल देगी। यहाँ से स्टेशन पंद्रह किलोमीटर दूर है। यदि घर पहुँचना चाहती हो तो समय मत गँवाओ। वर्ना,,,,,,,,,!”
मुसीबत की मारी भगवान का नाम, अशोक का प्यार व विश्वास ले वह मोटरसाइकिल में बैठ गयी। परंतु उसकी धड़कनें बेकाबू हो रही थीं। वह स्वयं को शक्तिहीन महसूस कर हाँफने-सी लगी। लेकिन फिर भी किसी तरह वह हिम्मत बाँधे हुए थी।
हाॅर्न बजाती, पूरी रफ्तार में मोटरसाइकिल सड़क पर दौड़ी जा रही थी। रास्ते में कहीं-कहीं खेतों में दूर-दूर छिटके हुए घरों में टिमटिमाती रोशनी वहाँ बस्ती होने का आभास करा रही थी। इक्का-दुक्का लोगों का आना-जाना भी लगा हुआ था। कहीं-कहीं खुली दुकानें, भय व संदेह में घिरी नमिता के लिए डूबते को तिनके का सहारा-सी बनी हुई थीं।
अपने बच्चों के साथ सोया अशोक, अचानक चीख मारकर उठ बैठा। उसने सपने में ‌नमिता को रोते-बिलखते, सहायता के लिए अशोक-अशोक चिल्लाते देखा। वह भयभीत हो गया। इससे पहले उसे इस तरह के सपने कभी नहीं आये। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कि नमिता किसी संकट में फँस गयी है। उसने उठकर तुरंत नमिता को फोन लगाया। पर काॅल नाॅट रीचेबल! कई बार ट्राई करने के बाद भी नंबर नहीं लगा। बुरे-बुरे खयालों ने उसे हिलाकर रख दिया। पसीने से तर-बतर बदहवास-सा वह भागता हुआ कामिनी की माँ के पास पहुँचा कि उनसे ही बात हो सके। पर वहाँ उसने जो देखा, उसके होश उड़ गए। कमरा बिल्कुल खाली था। वहाँ कोई नहीं था।
वह बदहवास-सा पागलों की तरह वापस अपने कमरे की ओर दौड़ा और सोते हुए बच्चों से लिपट कर रोने लगा। नमिता कहाँ, किस हाल में होगी, यह बात उसे भयभीत कर रही थी।
असहाय,लाचार-सा वह भगवान से प्रार्थना करने लगा, “हे ईश्वर! मेरी नमिता जहाँ भी हो सुरक्षित हो। उसकी रक्षा करना ईश्वर! बस कैसे भी मुझे पता चल जाए मेरी नमिता कहाँ है।” वह सुबक-सुबक कर रोने लगा।
बस स्टेशन पहुँच कर अजनबी ने मोटरसाइकिल रोकी और बस की ओर इशारा करते हुए नमिता से कहा, “तुम बस में बैठो मैं मोटरसाइकिल रख कर आता हूँ,,,,,।”
वह दौड़कर बस में चढ़ी और एक सीट पर बैठ गई।
अजनबी ने पास पहुँच कर नमिता से कहा। “अभी बस के चलने में पाँच-दस मिनट हैं, कुछ खा लो।”
नमिता ने ‘ना’ में केवल सिर हिलाया और पल्लू से अपनी आँखें पोंछने लगी।
“रोओ नहीं। यहाँ सिग्नल मिलेगा, घर फोन कर लो,,,,।” अजनबी ने सुझाया
सुनते ही उसने काँपते हाथों से अशोक का नंबर मिलाया।
मोबाइल की रिंग सुन अशोक ने लपककर मोबाइल उठा लिया।
“हैलो नमिता,,,,! हैलो,,,,! हैलो,,,,,!”
अशोक की आवाज सुनते ही वह फफक पड़ी।
“नमिता,,,,,! नमिता,,,,!” अशोक चिल्लाए जा रहा था पर नमिता के मुँह से आवाज नहीं निकल पा रही थी।
“नमिता! तुम कहाँ हो? भगवान के लिए बताओ। कुछ बोलो, नमिता,,,,,! प्लीज़।”
नमिता ने “हैलो!” कहा और सुबकने लगी।
अजनबी ने उसके हाथ से फोन लेकर “हैलो!” कहा ही था कि अशोक चिल्लाने लगा, “कौन हो तुम! कौन हो? नमिता को फोन दो,,,,,,।”
“घबराओ नहीं अशोक! नमिता बिल्कुल ठीक है। ईश्वर का धन्यवाद करो कि एक अनहोनी टल गई। तुम्हारी पत्नी सही सलामत है,,,,,,,।”अपनी बात जारी रखते हुए उसने आगे कहा, “हम अभी बस में हैं। सुबह तुम्हारे पास पहुँच जाएँगे। सुबह पाँच बजे बस हमें तुम्हारे पास छोड़ेगी। तुम नमिता को लेने समय से पहुँच जाना‌,,,,,,।” अजनबी ने कहा और नमिता के साथ घटी दुर्घटना संक्षेप में अशोक को कह सुनाई। समय से बस स्टेशन पर पहुँच जाने की बात दोहराकर फोन नमिता को पकड़ाया और बात करने को कहा।
“हैलो,,,,!” नमिता ने रोते हुए कहा।
“तुम ठीक तो हो न,,,,,,! और यह आदमी कौन है,,,,,,,,,,!” अशोक बोले जा रहा था।
“हम्म्म्म्म! कहते हुए वह फिर रोने लगी।
“तुम रो क्यों रही हो? कहीं कुछ,,,,,,,,।अशोक की घबराहट वाक्य पूरा ही नहीं कर पायी।
अशोक के प्यार और उसके प्रति चिंता ने उसे बोलने की ताकत दी।
“नहीं- नहीं! ये तो हमारे लिए भगवान के भेजे हुए दूत हैं। आँसू पोछते हुए उसने कहा, “मैं ठीक हूँ।
“मैंने तुम्हें पहले ही आगाह किया था। अशोक बोला। खैर! भगवान का लाख-लाख धन्यवाद कि तुम सलामत हो। तुम चिंता मत करो। सब ठीक हो जाएगा। तुम मेरी जिंदगी हो,,,,।” कहकर अशोक ने नमिता के प्रति अपना प्यार व विश्वास जगाया।
रात भर वे दोनों ही
अपनी-अपनी परिस्थितियों से जूझते रहे। दोनों को ही यह रात बहुत लंबी लग रही थी।हर पल विचारों की उथल-पुथल दोनों को बेचैन करती रही। जिसे वे फोन पर बात करके दूर करने का प्रयास कर रहे थे। दोनों के लिए ये रात सचमुच बहुत लंबी थी।
अशोक से बात करके नमिता को राहत मिली। लेकिन तेज रफ्तार बस की गति अब भी उसे बहुत धीमी लग रही थी। वह एक ही पल में अशोक के पास पहुँच जाना चाहती थी।
अजनबी उसकी स्थिति को अच्छे से समझ सकता था। वह उसकी भय, बेचैनी, व्यग्रता को कम करने के लिए उससे लगतार बातें किया जा रहा था।
पर नमिता हाँ-हूँ, हाँ,ना,,,, में ही जवाब दे रही थी।
जब तक वह अशोक के पास नहीं पहुँच जाती, वह अनजाने भय व शंका से घिरी हुई थी।
सुबह जैसे ही चार बजे, अशोक ने बच्चों को जगाया। हाथ-मुँह धुलाकर उन्हें साथ ले मोटरसाइकिल पर वह स्टेशन की ओर चल दिया। अँधेरा छँटने का संकेत मिलते ही नमिता की बेचैनी और बढ़ गई। वह बार-बार खिड़की से बाहर ऐसे झाँकती कि जैसे उसे वहीं अशोक व बच्चे नजर आ जाएँगे।
स्टेशन पर पहुँचकर बस ने ब्रेक लगाया। हल्के झटके के साथ बस रुक गयी। बस रुकते ही सवारियाँ उतरने-चढ़ने लगीं। नमिता अब भी खिड़की से बाहर ही झाँक रही थी।
“उतरें,,,,,,! तुम्हारा स्टेशन आ गया है।” अजनबी ने आत्मिक शाँति प्राप्त करते हुए प्रसन्नता भरी मुस्कान के साथ खिड़की से बाहर झाँक रही नमिता से कहा।
सुनते ही वह फुर्ती से उठी और बस से उतर, अपने सामने ही खड़े अशोक व बच्चों से लिपट, सुबक-सुबककर रोने लगी।
नमिता को पाकर अशोक की जान में जान आई। उसने अपने से लिपटी नमिता को बाँहों में भर उसके सिर पर प्यार से चुंबन जड़ा और बोला, “भगवान का लाख-लाख धन्यवाद कि उसने मुझे मेरी जिंदगी लौटा दी!”
अजनबी वहीं पास खड़ा भावविभोर हो उन्हें देख रहा था। उसे अपना परिवार याद हो आया। उसकी आँखें भर आयीं। पर उसे अपना कर्तव्य निभा पाने की खुशी थी।
अशोक हाथ जोड़े, नतमस्तक हो अजनबी के एहसान का धन्यवाद अदा कर रहा था। बस ने हाॅर्न दिया अजनबी बस में चढ़ने को बढ़ा। अशोक ने रोककर घर चलने का आग्रह किया
नमिता आँखों में आंसू लिए कृतज्ञता से हाथ जोड़े खड़ी थी।
अजनबी ने दोनों के सिर पर हाथ रखा और सदा सुखी रहने का आशीर्वाद देकर आगे बढ़, बस में चढ़ गया और हाथ हिलाता हुआ उनकी आँखों से ओझल हो गया।

 

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gtripathi

13 comments

  1. बहुत मार्मिक कथा

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    1. Very nice story, keep it up

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  2. वाह ! बहुत सुंदर व्यख्यान किया गया है

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    1. Very nice story. Keep it up

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  3. Very nice story

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  4. Very nice story, jaldi kisi per vishwas nhi krna chaiye, shi mai aise log bhi hote hai, very good

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  5. बेहतरीन समसामयिक इस समय वास्तव में किसी पर भरोसा करना बहुत मुसीबत में डालने वाला हो सकता है

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  6. Great joshi Ji

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  7. बहुत सुंदर लेख। सजीव वर्णन किया है आपने । समसामयिक विषयो पर अच्छा लेखन। बधाई आपको।

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  8. बहुत अच्छी कहानी लिखी है और कहानी में रोचकता और तारतम्यता भी है कहानी पढ़ने की जिज्ञासा भी है और एक सार्थक उद्देश्य भी है कहानी हालांकि बहुत लंबी हो गई है चूंकि मुझे लघु कथाएं पढ़ने का शौक है तो मैंने तो प्रारंभ इसी उद्देश्य से किया था कि यह लघु कथा होगी किंतु वह लंबी कहानी निकली फिर भी कहानी में रोचकता है। इस कहानी को पढ़ते ही पहले से ही ज्ञात हो गया था कि इस कहानी में कहीं ना कहीं कोई धोखा जरूर अवश्य मिलेगा यह एक प्रकार का मस्तिष्क को संकेत मिलता है कि कहानी आखिर क्या कहना चाहती है खैर एक अच्छी कहानी के लिए आपको बधाई एक दो स्थान पर थोड़ी नाटकियता भी दिखाई दी।

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  9. Very nice story, keep it up

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  10. Very nice story, keep it up

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  11. Very nice story. Keep it up

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