-मन्जू सिजवली महरा, हल्द्वानी
जिसकी फटी हुई तस्वीर भी जलने में हिचक्ते थे ये हाथ।
उसको अपने ही हाथों से सारा जला दिया।
जिस कागज पर उसका नाम लिख जाता,
उसी से मुहब्बत हो जाती थी।
आज उसकी राख को भी पानी में बहा दिया।
रत्ती भर नाराजगी देख हर बात मान जाता था।
आज उसको मनाने आशुऑ का सेलाब लगा दिया।
कोई भी बुराई जिसमे ढूंढए नहीं मिलती थी,
आज उसी पर बेरी जनम-जनम का यह इ
ल्जाम लगा दिया।
बिधाता , उसकी इबादत का तूने कैसा सिला दिया।
आस्था से भरे मन को
आज नासतिक बना दिया।
तूने मुझे कोई दुआ मांगने लायक ही नहीं छोड़ा।
तूझे प्रणाम भी किया होगा,मगर हाथों को नहीं जोडा।
आज हर विस्वास से विस्वास उठ गया।
उसकी भक्ति के विस्वास को तूने अन्धविस्वास बना दिया।
आज वर्षों बाद भी उसे हर रोज करती हूँ याद,
सपनों में ही सही,वो मिले तो जी भर कर।
आशू बहा बहा कर ये करती हूँ फरियाद।
पर वो मुझसे रुठा तो रुठा इस कदर,
सपनो में भी आया तो किसी सवाल का जवाब नहींदिया।
मेरी जिंदगी की सारी रंगीनियों को उसने ,
जुदाई की काली -स्याही से ढ़क दिया।
हिम्मत नहीं होती उसे बेवफा कहने की,
मगर किसी की मुहब्बत ने
उसे बावफा रहने भी नहीं दिया।
जानती हूं इन सबका जिमेदार वो खुद भी नहीं मगर ,
उसकी चाहतो को कभी भगवान् ने पूरा होने ही नहीं दिया।
देते रहे लोग उसे लम्बी उम्र की दुआ,
पर लोगों की उन दुआओं को खुदा ने कबूल ही नही किया।