September 23, 2017 0Comment

सूचनाओं के दौर की रामलीला

हल्द्वानी के मंगल पड़ाव,होली ग्राउन्ड के आस-पास कुछ गहमा- गहमी थी ,रोज से ज्यादा साफ-सफाई और लोग कुछ सम्हले से किनारे चल रहे थे। जिन्हें नहीं पता था उनके दिमाग में कई सवाल उभर आये थे । तभी देखा कि साक्षात राम-लक्ष्मण का रुप धरे युवा-किशोर जन-समूह के साथ चले आ रहे हैं । सभी के कदम जहाँ के तहाँ थम गये और चेहरे निस्प्रयोजन एक अलग से सन्तोष के साथ मुस्कुरा पड़े , और समझ गये कि भरत-मिलाप होने जा रहा है । पर हमारे बचपन जैसी अधीरता आज के बचपन में इन उत्सवों के लिये नहीं दिखी । यही है हमारे देश की संस्कृति का असर जो आज की आभासी दुनिया में भी कहीं न कहीं जैसे- तैसे अपनी पुरासंस्कृति को चिरयौवना रखने की जद्दोजहद में है।

सामान्य तौर पर क्वार (अश्विन मास ) कृष्ण पक्ष एकादशी से रामलीला, श्रीगणेश पूजन के साथ आरम्भ हो जाती है । मंचन के अन्दाज, वेशभूषा एवं साज-सज्जा में परिवर्तन प्राकृतिक है पर सन्देश साश्वत है बुराई पर अच्छाई की विजय।

केवल अपने स्वार्थ के लिये मनमानी करने वाली शूर्पणखा का भ्रम दूर करना और ऐसी बहनों के लिये रावण जैसा व्यवहार करने वालों का विनाश, कैकयी के रूप में सर्वगुणसम्पन्न रानी द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग का नकारात्मक परिणाम , सीता के रूप में एक स्त्री की सहनशीलता की पराकाष्ठा का परिणाम आदि अभी भी बुराई और अच्छाई का अन्तर बताते हैं ।

वर्तमान समाज इन उत्सवों का महत्व प्रगतिशीलता की अन्धी दौड़ में भूलता जा रहा है । आज के बच्चे और युवा होते किशोर.किशोरियों में सहनशीलताए सहयोग की भावना की कमी इन्हीं कारणों से आ रही है क्योंकि वो हमारी संस्कृति और उत्सवों का मरम नहीं जान रहे हैं । जरा. जरा सी बात पर हत्या.आत्महत्या पर उतारू होजाते हैं । यदि माता.पिता अपने बच्चों से सम्मान और देखभाल की आकांक्षा रखते हैं तो उन्हें पहले स्वयं हमारी संस्कृति की ओर लौटना होगा। समय और भावनायें व्यावहारिक रूप से देनी होंगी। हालाँकि समाज के वरिष्ठ जन बढ़.चढ़ कर हमेशा अपनी भागीदारी देते रहे हैं जैसे कि यहाँ बंशीधर भगतएएडीएम हरबीर सिंह आदि रामलीला के पात्र बन कर इसे बढ़ावा देते हैं । देश भर में ऐसे उदाहरण देखने.सुनने को मिलते हैं।
इस सब के बावजूद भी एक वर्ग ऐसा भी है जो श्रीरामचरितमानस आदि ग्रन्थों के पात्रों को एक मिथक के रूप में देखता है। स्वतन्त्र भारत के स्वतन्त्र नागरिक हैं सभी। परन्तु भारतीय बने रहना चाहते हैं तो संस्कृति से जुड़े रहना बहुत जरूरी है अन्यथा इण्डियन तो सभी बन ही रहे हैं।

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gtripathi

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