October 03, 2017 2Comments

दिल्ली दूर है?


अपने गृहक्षेत्र में नौकरी करने का लालच अधिकतर लोगों को लक्ष्य बदलने के लिए मजबूर कर देता है। भले वो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर ही क्यों न हो।’ लेकिन व्यक्ति घर में दाल मखनी बनने के लिए पूरी उम्र गुजार देते हैं। यही सोच मुझे छत्तीसगढ़ से यूपी और यूपी से उत्तराखंड के हल्द्वानी ले आई। यहां मैंने खुद को आबोहवा और नौकरी के हिसाब से सेट तो कर लिया लेकिन साहित्य की सनक जो छत्तीसगढ़ में चढ़ी थी वो उतरने का नाम नहीं ले रही थी। इस बीच कुछ लेखन जारी किया। बरेली की मैगजीन में लेख प्रकाशित होने लगे और मेहनताना मिलने लगा तो हौसला बढ़ने लगा। सोचा दिल्ली के करीब हूं तो दिल्ली से ही दूरी कम की जाए। यानी अब दिल्ली को दूर न माना जाए। ऐसे में एक साहित्यकार जिन्हें मैं लंबे समय से पढ़ता आ रहा था, मिलने की इच्छा हुई। (यहां मैं उनका नाम लेना उचित नहीं समझता) उनसे मिलकर साहित्य की और बारीकियां जानने का मौका मिलेगा, जिससे मुझे लेखन में फायदा होगा। लंबी मशक्कत के बाद मैंने उन साहित्यकार का फोन नंबर खोज लिया। उन दिनों एसटीडी पर बात करना काफी महंगा पड़ता था। सैलरी कम थी। लेकिन एडजस्ट करने के सिवाय और कोई चारा नहीं था।
-हेलो सर मैं हल्द्वानी से गौरव बोल रहा हूं।
-गौरव…..।
-जी मैं आपके आर्टिकल पढ़ता रहता हूं, मुझे आपके लेख काफी पसंद आते हैं।
-ओह धन्यवाद! अच्छा तुम उत्तराखंड में हो।
-इस बीच मैंने भी व्यंग्य के क्षेत्र में कुछ लिखना शुरू किया है। आपसे मिलकर ‘कैसे आप लिखते हैं और कैसे मैं अच्छा लिख सकता हूं’ इस संबंध में चर्चा करना चाहता हूं।
-ओके! गौरव! ये बहुत अच्छी बात है। तुम्हारे जैसे युवा लेखन को गंभीरता से रहे हैं और सीखना चाहते हैं। तुम कभी भी दिल्ली चले आओ। तुम्हारा स्वागत है।
इसी तरह उनसे बीच-बीच में बात होती रही और वे दिल्ली आने का न्यौता देते रहे। एक दिन संडे को मैंने दिल्ली जाने का फैसला किया। उक्त साहित्यकार ने भी मुझे दिनभर घर में रहने की बात कहकर उत्साह को बढ़ा दिया। उन्होंने मुझे दिन में दस बजे दिल्ली में घर में मिलने की बात कही। हल्द्वानी से दिल्ली की दूरी का अंदाजा नहीं होने की वजह से मैं रात 11 बजे वाली बस मैं बैठ गया। सोचा कि सुबह सात बजे तक दिल्ली पहुंच जाउंगा। फिर उक्त साहित्यकार के घर तक पहुंचने में दो-तीन घंटे तो लग ही जाएंगे।
बस में मैं दिनभर आफिस में काम करने के बाद बैठा था। इसलिए थकान बस में पसर जाने को मजबूर कर रही थी। लेकिन सरकारी बस की उखड़ी सीट और टूटी हुई खड़-खड़ करती हुई खिड़कियां, पलक झपकने तक नहीं दे रही थीं। पूरे सफर दिमाग में साहित्य की दशा-दिशा को लेकर सवाल बनते रहे। उम्मीद के ठीक विपरीत रात तीन बजे ही बस दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन पहुंच गई। सरकारी बस का समय से पहले भी पहुंचना दुखदायी होता है। चारों तरफ अंधेरा था। कुछ लोग और बसें चलती हुई दिखाई दे रही थीं। बाकी सब सुबह पांच बजे चलने की तैयारी में जहां-तहां खड़ी थीं। अब रात में किसी को फोन करना या किसी के घर जाने की बात सोचना, सभ्यता नहीं कहलाती। इसलिए मैंने बस स्टेशन पर ही छह बजे तक समय गुजारने का फैसला किया। तीन घंटे का समय लंबा था इसलिए स्टेशन पर मैंने बैठने की जगह तलाशना शुरू किया। करीब एक घंटे तक पूरे आनंद विहार बस स्टेशन के तीन चक्कर लगाने के बाद तीन सीटर एक बंेच पर पांच दुबले-पतले लोगों को बैठे देख मुझे छठे व्यक्ति के एडजस्ट होने की संभावना दिखी। बेंच पर मैंने अपने पत्रकार होने का रौब दिखाकर जैसे-तैसे टिकने भर की जगह हथियाई। बेंच पर बंटी सामथ्र्य के अनुसार जगह पर लोग कंबल ओढ़े सोने का प्रयास कर रहे थे। इस दौरान मैंने भी बिना कंबल ओढ़े (क्योंकि मैं कंबल लाना भूल गया था) एक आंख मारने की सोची। तीन झोंके नींद के आने के बाद फैलने का पर्याप्त स्थान नहीं मिलने पर आखिरकार मुझे उस बेंच से उठना ही पड़ा।
पांच बज चुके थे। सामने चाय की दुकान खुल चुकी थी। साथ ही लक्खा सिंह के मां दुर्गा की भक्ति वाले गाने बजने लगे थे। ‘मां मुराद कर पूरी, रहे न अधूरी, जाउंगा झोली भर के, शेरों वाली माता देख ले’। दुकान वाला भक्ति वाले गाने सुनते-सुनते स्टोव में प्रेशर भरने लगा। पांच-छह लोगों के साथ मैंने भी चाय का आर्डर दे दिया। इस बीच कुछ लोगों ने बातचीत शुरू की।
-दिल्ली का माहौल बड़ा ही खराब हो गया है। यहां सांस लेना भी मुश्किल हो गया है। अपनापन तो जैसे लोगों से खत्म होता जा रहा है। बिना मतलब कोई किसी की तरफ देखता तक नहीं। यहां तो दूर के ढोल सुहावने जैसी कहावत है।
उधर मैं निश्चिंत था कि मेरे साथ खैर ऐसा व्यवहार नहीं हुआ। जैसे-तैसे चाय पीते-पीते, बातचीत करते-करते छह भी बज गए। मैंने सरकारी वाटर कूलर (जिसकी दुर्दशा सबको मालूम है) से मुंह हाथ धोए और आगे के सफर की जद्दोजहद में लग गया। फोन पर मैंने जो पता नोट किया था। उसके अनुसार बस पकड़कर मैं उक्त साहित्यकार की घर की ओर रवाना हुआ। समय के एक घंटा पहले मैं उक्त साहित्यकार के मोहल्ले में प्रवेश कर चुका था। घर का सही लोकेशन जानने के लिए मैंने उन्हें फोन लगाया।
-हेलो, सर मैं गौरव। दिल्ली पहुंच चुका हूं।
-ओह गौरव। अच्छा। हां मैं अभी घर पर हूं। कुछ लोग आए हुए हैं। तुम करीब 10 बजे घर पहुंचना।
इससे पहले मैं उनसे पूरा पता पूछता उन्होंने फोन काट दिया था। मैंने सोचा-चलो थोड़ी देर मोहल्ले में घूम लेता हूं। इस बीच मैंने फिर एक चाय की दुकान ढूंढी और बची हुई नींद को उड़ाने की कोशिश की। इधर-उधर टहलने के बाद करीब दस बजे मैंने फिर उक्त साहित्यकार को फोन लगाया। इस बार घंटी गई लेकिन उन्होंने फोन उठाया नहीं। करीब तीन बार लगातार फोन करने के बाद उन्होंने फोन उठाया।
-हेलो! हां गौरव मुझे अचानक किसी काम से घर से निकलना पड़ रहा है। करीब एक बजे मैं तुमसे मिल पाउंगा।
इतना कहकर उन्होंने मेरा दोबारा फोन काट दिया। दिल्ली में एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में जाना आसान नहीं है। एक बजे तक का समय काटने के लिए पहले मैंने सोचा-किसी दोस्त के यहां हो आउं। फिर ख्याल आया-दोस्त गाजियाबाद में है, मैं नई दिल्ली में हूं। आने-जाने में तीन घंटे लग जाएंगे। दोस्त भी परेशान होगा। इसलिए मैंने वहीं पर टाइम पास करने का फैसला लिया। टहलते-टहलते एक पार्क दिखा। कुछ देर बैठकर टाइम काटूंगा सोचकर अंदर घुस गया। अंदर कई प्रेमी युगल संडे मना रहे थे। इस बीच मैंने एक खाली जगह देख पलथी मार ली। पैरों को थोड़ा आराम मिला। आसपास के माहौल को देख मैंने भी कुछ पुराने दोस्तों को फोन लगाकर टाइम पास शुरू किया। कई लोगों से बातचीत के बाद जैसे-तैसे एक बजे तक समय भी पूरा हुआ। कई बार फोन करने के बाद उन्होंने फिर दो घंटे के बाद मिलने की बात कही। मैंने उनसे कहा कि जहां आप हैं मैं वहीं आ जाता हूं। उस पर भी वे तैयार नहीं थे। दो घंटे और इंतजार के बाद भी उनके टालने और फोन काटसे से मैं समझ गया कि वे शायद मिलना नहीं चाहते हैं। इसलिए शाम करीब चार बजे मैंने वहां से लौटने का फैसला किया।
मुझे ऐसा लगा-जैसे मैं किसी इंटरव्यू में फेल होकर लौट रहा हूं। ये मेरी दिल्ली की पहली साहित्यक यात्रा थी।

-गौरव त्रिपाठी, वरिष्ठ उपसंपादक
अमर उजाला, रामपुर रोड हल्द्वानी, उत्तराखंड

Social Share

gtripathi

2 comments

  1. bade shahro ki badi baate

    Reply
  2. Comment *बढ़िया संस्मरण किन्तु दुखद ।आप ये संस्मरण उनके पते पर आपके मन में उनके लिए जो विचार आय हो उन्हें भी इसमें एड करके भेज दीजिए।जिससे अगली बार कोई किसी को ऐसे परेशान करने की सोच भी ना सके।

    Reply

Write a Reply or Comment