-बीना फूलेरा, हल्द्वानी
उसने कैसे पाले बच्चे
ये मत पूछो उससे
वो रो पड़ेगी फ़ूटकर
खिड़की के दरवाजे से
बाधे गए उस बच्चें के पैर
बता देगी साड़ी में पड़ी गाठें
वो बंद दरवाजे गवाही दे देंगे
जिन्हें पीटा गया नन्हें हाथों से
दीवारों से पूछों सुनाई देंगी
अनगिनत अनसुनी आवाजें
जो लगाई उस बच्चें ने माँ को
भूख प्यास में बिलख कर
मिट्टी का गीला चाख कह देगा
जो पोता उसने अपने हाथ से
अपने मल मूत्र को फतोड़कर
आते जाते सुनी थी रोती हुई
लोगो ने जब उस ड्योढ़ी के
पुराने मकान की आवाजें
कलकली लगी थी देख कर
पर बंद दरवाजे की चाबी
उस समय काट रही थी घास
या पढ़ा रही थी कोई पाठ
ढो रही कंकड पत्थर के ढेर
धो रही थी हवेलियों के बर्तन
झुलसी पात जैसी टिकी टहनी पर
जूझ कर लड़ रही थी जंग
हारना नही था सिर्फ जीतने को
अपनी बच्ची के खातिर
रोक रही थी दबाकर हाथ से
स्तनों से बहते दूँध की धार को
अपनी छाती में पत्थर रख
बस दो रोटी के खातिर ही तो
हुई दुधमुहि बच्ची को सजा
बिन गुनाह की कैद ।