-ज्योति मेहता
सृष्टि का सार है नारी ।
घर की पहचान है नारी।
आंचल में छुपाती है नारी।
दीवारों को घर बनाती है नारी।
उठ भोर घर को मंदिर बनाती है नारी।
अन्न को भोजन बनाती है नारी
चकला बेलन का खेल खेलती है नारी।
बंद कमरों में आंसू छुपाती है नारी
धरती माता भी है नारी।
भारत माता भी है नारी।
युगों से अग्नि परीक्षा भी देती हैं नारी
पीठ मैं अपने लाल को बांध, तलवार उठाती है नारी।
यूं तो नारी के अधिकारों के।
कई पुल बनाए जाते हैं
वो मंज़िल तक नहीं पहुंच पाते हैं
कहीं पूजी जाती है देवी शक्ति रूप में।
कहीं उसके आंचल को उड़ाया जाता है हवाओं में।
हाथ जोड़े जाते हैं नारी के सम्मान में।
शाम को छेड़े जाती है गलियारों में।
जीवन उसका डूब जाता है अंधियारों में।
जन्म लेने की नारी की कोख है।
और फेंकी जाती है नदी नालों और तालाबों में।