-गिरिलाल गोपाल मण्डल, रानीखेत, उत्तराखंड
याद आता है वो पुराना स्कूल
याद आती है वो हरियाली, रंग बिरंगे फूल
पेड़ों की छाया में रहते थे मस्त,
ना कोई टेंशन, ना कोई चिंता,
कितने ही खेलों में रहते थे ब्यस्थ।
कहा चला गया, वो प्यारा बचपन
खुशियों की बारि शो में भीगा तनमन।
मास्टरजी हमारे बड़े थे प्यारे
कोई अपने ही धुन में मगन,
कोई सपा सप लाठी मारे
संस्कृत की सुश्री हमारी,
पढ़ाती थी जब भी कोई पाठ
कुछ बच्चे करते शैतानी
सब सुन लेते उनकी डांट
फिर अचानक मैम उठती और बोलती,
चुप रहो ज़रा, घंटी बजने को हैं।
कहां गए फूलों के बागान,
हरे भरे वो खेत हमारे,
आम, कदंब, अमरूद, जामुन,
कितने और पेड़ सारे,
कहा गायब हो गए वो
छोटे बड़े तालाब, नदी झरने
नए पुराने साथियों संग दोस्ती और
किसी बात पर लग जाते थे लड़ने।
मेरी बचपन की वो आवारागर्दी,
टायर डंडे से जंगल सफारी
दूर- सुदूर तक करें सवारी,
हाथ थके या पैर दुखे,
भूख लगे या प्यास लगे,
मंजिल हमारी आगे है अभी,
एक सुसज्जित कमल का मंदिर।
तालाब के ऊपर एक बहता मंदिर।
कमल के हसीन फूलों से घिरा हुआ।
एक दूसरे के तरफ़ देख,
कहते हम कैसा चमत्कार,
आख़िर किसने इसे दिया आकर।
कितनी मेहनत करते थे हम
पकड़ने को एक पतंग
आगे भागे, पीछे ताके,
दाएं बाए हाथ फैराके,
कच्चा पक्का कीचड़ गोबर
खाली सड़क हो या कोई छत
जान भी झोखिम में पड़ जाएं
दुम दबाकर ऐसे भागे चड्डी पहन।
कहां अदृश्य हो गए वो प्राकृतिक पार्क,
याद है चिकनी मिट्टी बाली छोटी नदी
कहीं थी उची – नीची, कहीं टेढ़ी मेड़ी,
लुड़कते – फिसलते हम आगे बढ़ते
चड़ते – उतरते ख़ूब मजे करते,
माहौल क्या आनन्द का गढ़ते।
ज़रूरत नहीं थी किसी टिकट की,
और न थी कोई पाबंदी।