कितना अकेला
अकेले अकेले चला आया
मदमस्त हो कर बिंदास
फर्क नहीं कौन आस पास
अकेला कूदता फांदता
जाने कितने रोड़े , पहाड़ों को
लांघता फिर आया एक शिखर पर
चांदी सी ले धार वहीं से निखर गया
निर्मल शीतल जल को लेकर
ऊंचाई से सहसा छलक पड़ा हूं।
एक धवल चादर सा तान
प्रकृति के रूप को दुगना कर चला हूं।
मै झरना!
नित नए रूप में सज
सादगी पूर्ण जीवन को जी चला हूं
चाहे जो अपना ले मुझे प्रेम से
मै उसी का हो चला हूं ।
-डा. आभा भैसोड़ा, हल्द्वानी