-आशा बाजपेयी ‘संभवी’
समय बहुत ही बलवान है । चलते रहता ही इसकी नियती है । साथ ही साथ यह हमें भी सदैव कार्यरत रहने की सीख देता है । प्रभु की लीला भी अपरम्पार है। उसने मनुष्य को सदैव सद्मार्ग पर रहने के लिए प्राकृतिक उपादानों का उपहार दिया है ताकि उनसे शिक्षा ग्रहण कर हम सब अपने जीवन को सफल एवं सार्थक कर पाएँ। हमारे ऋषिमुनियों द्वारा बनाई गई सामाजिक व्यवस्थाएं भी सदैव जीवन मूल्यों पर खरी उतरती है और उत्तम पाई जाती है। सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य का सर्वागीण विकास, अधिकार एवं कर्तव्यों की पूर्ण व्याख्या परिवार में रहकर ही संभव है। परिवार ही सुखमय जीवन की आधारशिला है। अगर हम पुनः समय पर् आए तो इसमें एक ओर विशेष गुण है कि समय के साथ बड़ी बड़ी यादें धुँधली हो जाती है। हर घाव समय के साथ भर जाता है।
इसीलिए कहते हैं। समय बडा बलवान होता है। कब क्या हो कौन जानें?
बस यूँ ही सोचते -सोचते शाम हो आई , अपना मन भी चाय को मचलने लगा और मेरे पतिदेव अनुभव जी ने भी एक गरमागरम चाय की माँग की । हम जब बैठे -बैठे चाय पी रहे थे, तभी उन्होंने एक शादी का कार्ड दिखाते हुए कहा अरे सुनती हो आज मिश्रा भाईसाहब की बेटी की शादी है। तुम्हें याद भी है या नहीं। आज आठ बजे तक हर हालत में उनके यहाँ पहुँचना हैं”। मैने कहा – ” हाँ- हाँ याद है कैसे भूल सकती हूँ ?भाभी जी मेरी भी तो अच्छी दोस्त हैं l तभी अनुभव बोल पडे तथी मिसेज मिश्रा बार-बार क्यों कह रही थी कि तुमको जरुर लेकर आऊँ। चाय पीते -पीते हम दोनों उनकी बेटी की शादी की बातें करने लगे। ये बोले- मधु देखते-देखते लडकियाँ – कितनी जल्दी बड़ी हो जाती हैं । बेटियों को पदा लिखाकर जब समझदार बनाओं तो आ जाती है उनकी विदाई की बेला।” है, अनुभव तुम कह तो ठीक रहे हो सही सच भी ती है । ए सुनो ! जब मैं छोटी थी तो पापा कहते थे कि बेटियाँ पाहुना होती हैं। तब समझ नहीं पाती थी मैं लेकिन आज सब समझ आता है 1 अनुभव से बात करते करते मुझे अपना बचपन याद हो आया कितनी दुलारी थी मैं अपने पापा की।
लखनऊ के एक बाह्मण परिवार में मेरा जन्म हुआ था । चार भाई बहनों में र्मै सबसे बड़ी माँ पापा की दुलारी । दोनों ने मुझे बेटे की तरह पाला कभी भी किसी भी चीज की कमी नहीं होने दी। पापा कहते-” मेरी मधु तो गुणों की खान है। यह तो मेरा बेशकीमती हीरा है । जिस घर में जाएगी उसको रोशन कर देगी, सबको खुश रखेगी।” माँ भी बलाएँ लेती थी । माँ-पापा की शादी के कई साल बाद मेरा जन्म हुआ था इसलिए मुझे परिवार के सभी लोग अपनी पलकों पर रखते थे तथा खूब प्यार किया करते थे। र्मै भी अपने बडो को कभी भी जवाब न देती थी। माँ ने भी बचपन से सही सिखाया था । बड़े संस्कारो वाला परिवार था हमारा ।
हम सब भाई-बहन लड़ते झगड़ते खेलते-कूदते बड़े हो गए लेकिन भाई-बहन तो भाई-बहन होते हैं कभी भी हम खूब झगड़ते छोटे भाई बहनों को यही शिकायत रहती कि मुझे सब क्यों इतना प्यार करते हैं? संगीता, आशा कहती-” सुन भाई, दीदी में ऐसा क्या है जो हम सब में नहीं?क्यों सब इसे इतना ध्यान देते हैं?” मुझे भी कभी खूब गुस्सा आ जाता । मैं भी अकड़कर बोलती -“क्यों तुम सब कहता नहीं मानते हो ,क्यों ज़बान लड़ाते हो उनसे और फिर आपस में एकदूसरे को मनाकर झगड़ा शांत हो जाता।” पापा जब तक हम बहनों को देखकर कहते बेटियाँ तो ‘पाहुना’ होती है। मेरे आँगन की इन चिड़ियों को कल उड़ जाना है lकहते -कहते उनकी आँखे आसूओं से छलक आतीl” कारण यह था कि वह अपनी बेटियों से बहुत प्यार करते थे।गलती होने पर भी माँ पापा के समाने हमें कुछ कह न पाती । कभी पापा के सामने डाँटने लगातीं तो उनकी ही डाँट पड़ जाती माँ किर पापा से कहती-” इनको कल दूसरे के घर जाना है। दो कुलों की मर्यादा निभाना है। अतः इनका मनमानी करना ठीक नहीं है और पापा बस पक्ष में बोलते- “मेरी बेटियाँ बहुत समझदार है। “इस तरह मामला हमारे पक्ष में जाकर शांत हो जाता था।
लड़कपन के कारण हम इन बातो को सुन तो लेते लेकिन
समझ ना पाते बस यूँ ही सिलसिला चलता रहा समय बीतने के साथ हम सब बडे होते गए।
मेरे बी.ए. पार करते ही पापा को मेरी शादी की धुन सवार हो गई । बड़ी खोजबीन के बाद सबकी राजीनमा से मेरा रिश्ता तय हो गया। परिवार से दूर जाने की बात, माँ- बाबू जी भाई-बहन से अलग होकर जीने की बात ही रुला देती ।
दूसरे घर जाने की बात सोचकर मुझे पहली बार ‘पाहुना’ का अर्थ कुछ कुछ समझ आने लगा था। कितना दुख हुआ कितने आँसू बहे बार-बार माँ से लिपटकर खूब रोई कि मत करो शादी लेकिन माँ का कहना-” बेटा, यह है नियती, बेटी तो पराया धन होती है। उनको एक दिन दूसरे घर जाना ही है।” पापा भी कहते-” अपनी बेटी को आज तक कौन रख पाया? तुम्हारा पापा भी कैसे रख ले ? मैं भी भोलेपन से कहती- “आप बदल दो रीती अपने घर में ही रखो लेकिन उत्तर ना ही रहता।”
इस तरह शादी की तारीख निकट आते ही पापा व्यवस्था में कुछ ज्यादा व्यस्त हो गए । खुशी -खुशी सारे प्रबंध किए। बारात आई स्वागत हुआ l मेरा परिवार बहुत खुश था। लेकिन विदाई की बेला आते ही पापा बहुत दुखी हुए उस माहौल को देखकर वह भावुक होकर रो पड़े और फिर बेहोश हो गए। रिश्तेदारों सखियों भाई-बहनों सभी से लिपटकर मैं विदा होते होते खूब रोई । माँ से लिपटी तो अलग होने का मन ही नहीं कर रहा था। पापा को इधर-उधर ढूँढना चाहा तो पता चला कि वह किसी काम में व्यस्त हैं । सब कहने लगे-” अब इंतजार मत करो । “चाची बोलीं- शुभ मुहुर्त निकला जा रहा है। जल्दी विदा करो।” पिता से ना मिलने का दुख लिए मैं ससुराल आ गई । पापा के बेहोश होने की बात मैने वहीं आकर सुनी। क्यों अपनों को छोड़ना पड़ता है ?क्यों अपने ही घर में बेटी पाहुना’ बन जाती है । सदा-सदा के लिए बेटियाँ क्यों ‘पाहुना बन जाती है? यही प्रश्न मन में लिए मैं ससुराल में अपनत्व को खोजने लगी।
इस तरह बेटी दो भागों में बंट जाती है वह बंध जाती है एक नई मर्यादा में अपने ससुराल और मायके की। जहाँ दोनों तरफ अपने होते हैं और दोनों को निभाना कितना कठिन होता है । अपने बाबुल को याद करके वह मन ही आँसू बहाती रहती है। अपनों को छोड़कर बेगानों के बीच प्यार, दुलार अपनेपन को खोजती हुई जीवन जीना कितना कठिन होता है ? कभी सौभाग्य इठलाए तो भूल जाती है मायका और अगर कुछ गलत हो तो…. मुश्किल होता है समाज में जीना।
अचानक अनुभव बोले-” अरे तुम्हारी तो चाय ही ठंडी हो गई है कहाँ शून्य में निहार रही हो । जब उनसे मैने पाहुना का दर्द बाटता चाहा तो हसकर मुझे बाहों में भरकर बोले-” मधु सच बताओ कि तुम मेरे साथ खुश हो या नहींl” आप जैसा खुशमिजाज जीवन साथी पाकर भला कौन खुश नहीं रहेगा। मेरे पति जिंदादिल स्वभाव के व्यक्ति हैं बोले आओ मिलजुल कर मिश्रा जी के घर चले अगर देर हुई दोनों बहुत नाराज़ होगें । हमें भी अपनी प्यारी बेटी को आशीर्वाद देना है ताकि भावी जीवन में खुश रहे । ईश्वर हमारी पाहुना का ही नहीं अपितु सभी पाहुना का जीवन खुशियों से भर दे कहते-कहते वह रोमांटिक हो गए उन्होंने हम सबको गले लगा लिया। इस प्रकार हमारी शाम एक नई आशा के साथ हंसीन हो उठी।