December 03, 2021 0Comment

आपबीती बातें बच्चे मंच पर लायें तो बचेंगे

-शैल्जा चौधरी, शिक्षकप्रशिक्षक, दिल्ली

“ऐसी बातें घर की चार-दिवारी के अन्दर ही रहनी चाहिये।” इसवाक्य में निहित बहु अर्थी परतों को खोलने की जरूरत है.समाज की नज़रों मेंबच्चों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और शोषण की बातें अगर घर या स्कूल की चारदीवारी में ही रहे तो अच्छा हैं. येसी सोच हमारी रही है. ताकि न तो स्कूल और न ही घर की इज्जत खराब हों,बाल यौन शोषण हमारे समाज द्वारा सामना की जाने वाली सामाजिक कुकृत्योंमें से सबसे ज्यादा उपेक्षित और हाशिये पर की चिंता है। इसे नज़रंदाज़ करने के करण भारत में बाल यौन शोषण की घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ रही है। इस प्रकार की घटनायों के विभिन्न आयाम है जिसके कारण समाज इसका सामना करने में असमर्थ है। बाल यौन शोषण न केवल पीड़ित बच्चे पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ता है बल्कि पूरे समाज को भी प्रभावित करता है। भारत में बाल यौन शोषण के बहुत से मामलों को दर्ज नहीं किया जाता, क्योंकि ऐसे मामलों को सार्वजनिक करने पर परिवार खुद को असहज महसूस करता है. इसके बारे में एक सामान्य धारणा है कि, “ऐसी बातें घर की चार-दिवारी के अन्दर ही रहनी चाहिये।” बाल यौन शोषण की बात के सार्वजनिक हो जाने पर परिवार की गरिमा के खराब होने के बारे में लगातार भय बना रहता है।यैसे में बाल संरक्षण आयोगों की मानेंतो बच्चे की पहचान का खतरा बना रहता है.

समाज और बच्चे के लिए बाल यौन शोषण कोई नयी समस्या नहीं है. ये एक वैश्विक समस्या है। ये समस्या 1970 और 1980 के दशक के बाद एक सार्वजनिक मुद्दा बन गयी है। इन वर्षों से पहले ये मुद्दा नागर समाज में दर्ज नहीं होता था। छेड़छाड़ से संबंधित मुद्दों की पहली सूचना वर्ष 1948 में और 1920 के दशक में मिली थी. नब्बे के दशक में बाल यौन शोषण पर कोई औपचारिक अध्ययन नहीं था। जहाँ तक भारत का संबंध है, ये विषय अभी भी चर्चा के लिए वर्जित है, क्योंकि इस मुद्दे को घर की चारदिवारी के ही अन्दर रखने के लिये कहा जाता है और बाहर किसी भी कीमत पर बताने की अनुमति नहीं दी जाती। एक रुढ़िवादी समाज में जैसे कि हमारा भारतीय समाज, छेड़छाड़ के मुद्दे पर लड़की अपनी माता से भी बात करने में असहज महसूस करती है.ये पूरी तरह से अकल्पनीय हो जाता है कि यदि उसे अनुचित स्थानों पर छूआ गया है तो उसे चुप रहने की सलाह दी जाती है। जबकिमितू कैंपेन चला जिसमे लड़कियों और लड़कों से कहा गया कि यदि वो कभी भी इस तरह के स्थिति से गुजरे हैं तो आवाज़ उठाये.

हाल ही में वैश्विक स्तर पर ही उन लड़कों के मामलों में भी होता है जो स्वतंत्र रूप से अपने माता-पिता के साथ वर्जित मान लिए गए विषय पर बात करने के लिए सक्षम नहीं है। ये पूरे समाज की मानसिकता है जो बुरे लोगों को प्रोत्साहित करने का काम करती है। कुछलोग मासूम बच्चे के दिमाग में बैठे डर का लाभ उठाते है, वो बेचारा मासूम बच्चा/बच्ची जिसे यौन उत्पीड़न के बारे में कोई जानकारी नहीं होती वो दिन प्रतिदिन इस का शिकार होता हैं|

बाल यौन शोषण एक अपराध है जिसे अनदेखा किया जाता है, क्योंकि लोग इस पर बात करने से बचते है। इस विषय के बारे में लोगों में जागरुकता पैदा करने के प्रयासों के द्वारा इस घटना को काफी हद तक कम किया जा सकता है। अपराधियों के मन में डर डाले जाने की आवश्यकता है.यह तभी संभव है जब लोग इसका सामना करने के लिये तैयार हो। अब समय आ गया है कि माता-पिता द्वारा इस तरह के मुद्दों के बारें में अपने बच्चों को जागरुक बनाने के लिये इस विषय पर विचार-विमर्थ किया जाये। शैक्षिक संस्थानों को भी जागरुकता कैंप आयोजित करने चाहिये जो सेक्सुएलिटी (लैंगिकता) विषय पर सटीक जानकारी प्रदान करने में सहायक होंगे। यद्यपि इस दिशा में कुछ प्रयास फिल्मों के माध्यम से भी किये गये जैसे: स्लम डॉग मिलेनियर, जिसमें बाल वैश्यावृति को पेश किया गया है, इसमें और अधिक प्रयासों को करने की आवश्यकता है। ये सुनिश्चित करने के लिये कि अपराधी, अपराध के भारी दंड के बिना छूट न जाये इसके लिये कानूनों और धाराओं को और अधिक कड़ा करना होगा। अन्त में, बाल यौन शोषण के मुद्दे से और अधिक अनदेखे मुद्दे की तरह व्यवहार न किया जाये क्योंकि ये समाज के कामकाज के तरीके को प्रभावी रुप में प्रभावित करता है और युवा लोगों के मन पर गहरा प्रभाव डालता है। पता भी नहीं होता।

आज भी, अधिकतर अपराधी, पीड़ित का कोई जानकार और पीड़ित के परिवार का जानकार या पीड़ित का कोई करीबी ही होता है। इस निकटता के कारक का ही अपराधी अनुचित लाभ उठाता है, क्योंकि वो जानता है कि वो किसी भी तरह के विरोध से बचने में सक्षम है, ये एक पारिवारिक विषय माना जाता है और इसके बाद अपराधी द्वारा बार-बार पीड़ित को प्रताड़ित करने का रुप ले लेता है। इसका एक ज्वलंत उदाहरणहाल ही में आयी हिन्दी फिल्म “ हाईवे“ है जिसमें साफ़ तौर पर दिखाया गया हैं कि कैसे और किन हालातों में बच्चे अपना बचपन खों जाते हैं और बचपन अमीरी गरीबी नही देखता और ना ही ऐसे होने वाले अपराध कोई स्टेटस देखते| ये छेड़छाड़ की घटना बच्चे के मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव डालती है। इसके प्रभावों में अवसाद, अनिद्रा, भूख ना लगना, डर आदि भयानक लक्षण शामिल है।

यद्यपि, भारतीय दंड संहिता, 1860, महिलाओं के खिलाफ होने वाले बहुत प्रकार के यौन अपराधों से निपटने के लिये प्रावधान (जैसे: धारा 376, 354 आदि) प्रदान करती है और महिला या पुरुष दोनों के खिलाफ किसी भी प्रकार के अप्राकृतिक यौन संबंध के लिये धारा 377 प्रदान करती है, लेकिन दोनों ही लिंगो के बच्चों (लड़का/लड़की) के साथ होने वाले किसी प्रकार के यौन शोषण या उत्पीड़न के लिये कोई विशेष वैधानिक प्रावधान नहीं है। इस कारण, वर्ष 2012 में संसद ने यौन (लैंगिक) अपराधों से बच्चों की सुरक्षा अधिनियम, 2012 इस सामाजिक बुराई से दोनों लिंगों के बच्चों की रक्षा करने और अपराधियों को दंडित करने के लिए एक विशेष अधिनियम बनाया। इस अधिनियम से पहले, गोवा बाल अधिनियम, 2003 के अन्तर्गत व्यवहारिकता में कार्य लिया जाता था। इस नए अधिनियम में बच्चों के खिलाफ बेशर्मी या छेड़छाड़ के कृत्यों का अपराधीकरण किया गया है।

इस तरह की कार्रवाइयों को रोकने के लिए आप निम्नलिखित कदम उठाकर दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया शुरू करने में मदद कर सकते हैं

पुलिस या ‘चाइल्ड लाइन’ को सूचित कर,यह सुनिश्चित कर कि ‘चाइल्ड लाइन’ बच्चों को उचित सलाह तथा कानूनी सेवाएँ उपलब्ध कराती है,इसके लिए जनसमुदाय का समर्थन प्राप्त करना,अंतिम उपाय के रूप में प्रेस या मीडिया को सूचित करना,अपने कानून के बारे में जानकारी प्राप्त करसबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आधारभूत कानून एवं उस अधिकार के बारे में जानकारी प्राप्त करें जिनकी रक्षा की जानी है। यदि आप बाल अधिकार तथा उसकी संरक्षा के लिए बने कानून से परिचित हैं तभी आप बच्चे या उसके माँ-बाप/ संरक्षक / जनसमुदाय को कानूनी कारवाई के लिए तैयार कर सकते हैं। कभी-कभार पुलिस या प्रशासन भी इस तरह के मामलों में बाधा उत्पन्न करते हैं। कानून के बारे में उचित जानकारी मामले को अच्छी तरह से हल में आपको सशक्त बनाता है।

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