-रिपुदमन कौर, हल्द्वानी
स्त्री सहनशील है।
कभी उसका जी चाहा होगा
सारी सहनशीलता को दरकिनार कर
फट पढ़े ज्वालामुखी सा
ताकि अंतरमन में उबलते लावे को
उतनी ही सहजता से शांत कर सके
जितनी सहजता से कर जाती है सब सहन
स्त्री नाज़ुक है।
मगर वो ताउम्र संभालती है स्त्रीत्व का बोझ
कभी उसका जी चाहा होगा
सारा बोझ उतारकर रख दे किसी कोने में
और आराम दे नाजुक कांधो को
ताकि कुछ दूर और चल सके उस रास्ते
जिस रास्ते में वो सबसे पीछे रह गई
स्त्री निर्माता है।
कभी उसका जी चाहा होगा
भस्म कर दे सारी सृष्टि अपने हाथों
ताकि कर सके पुनः सृजन
एक ऐसे समाज का
जो न स्त्रीप्रधान हो और न ही पुरुष-प्रधान
स्त्री सहज है ,शील है ,ममतामयी है ।
स्त्री दया है,भाव है,करूणा है
तमाम गुणों को ओढ़े स्त्री
समाज का आधार हैं
हे पुरुष! तुम कोशिश करो
कि कभी उसका जी न चाहे
स्त्रीत्व त्याग पुरूष हो जाने को