June 09, 2020 0Comment

वे होते तो शायद कुछ ऐसा होता

ना देखा कभी, उन्हें न जाना,
पिता का प्यार क्या होता है।
इससे मैं तो हूं अनजाना।
सोचता हूं मैं वे होते तो शायद कुछ ऐसा होता

टाॅफी-चाकलेट बिस्कुट लाते वो साथ अपने
गोदी में उठा के मुझको, खिलाते हाथों से अपने,
कागज की कश्ती से लेकर,
बाजार के सारे खिलौने होते तो पास मेरे
कैप्टन बना सिपाही या कार रिमोट वाली
घूमता वो लट्टू या उछलती गेंदें………………पर
ना देखा कभी, उन्हें न जाना………।

शायद कुछ ऐसा होता…
शरारतों पर मेरी, वो धीरे से मुस्कुराते,
या गलतियों पर मेरी मुझको चपत लगाते,
भागता इधर-उधर मैं फिर लिपट उन्हीं से जाता,
मस्ती में खेलता मैं, कंधे पे चढ़के उनके
और…………..छू लेता तारे, आसमां के
होती हंसी ठिठोली, गुस्सा या नाराजगी,
पर इस सबसे उपर, प्यारा होता तो साथ उनका।
ना देखा कभी, उन्हें न जाना………।

शायद कुछ ऐसा होता….
अंगुली पकड़के उनकी
मैं हाट-बाजार घूम आता या फिर….
उनकी मोटरसाइकिल के आगे बैठकर
दुनिया की सैर करके आता….पर
ना देखा कभी, उन्हें न जाना………।

पुस्तक-कलम वो लाकर
लिखना-पढ़ना मुझे सिखाते
लाता परीक्षाफल जब तो देख मुस्कुराते
छाती को चैड़ा करके, पीठ मेरी वो थपथपाते पर….
ना देखा कभी, उन्हें न जाना………।

हर उंचाई को पाने में, साथ मेरे वो होते,
भले और बुरे की समझ वो मुझको देते।
कुछ सपने होते, उनके मेरे लिए भी शायद
पूरा गर उन्हें मैं करता……वो मुझको गले लगाते
या फिर………….मेरे सपने का पूरा करते में, जी जान वो लगा
पा लेता गर मैं मंजिल……..
सीना चैड़ा वो अपना करते।
गर होते वो साथ मेरे……।

मां के द्वारा ही तो पिता को हूं जान पाया,
जितना भी समझा…उनको, उससे भी ज्यादा पाया….पर….
ना देखा कभी, उन्हें न जाना………।

-शिवांश सिंह हल्सी, केवीएम पब्लिक स्कूल हल्द्वानी

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