June 03, 2020 0Comment

खुशी का मेला है पिता

कभी हंसी और खुशी का मेला है पिता,
कभी कितना अकेला और तन्हा है पिता।
मां तो कह देती है अपने दिल की बात,
कभी रोता तो कभी सोता नहीं है पिता।

कभी-कभी सोचती हूं कितने बदल गए हैं इंसान,
पिता की दवाइयां इन्हें लगने लगी हैं बोझ।
और पत्थरों में करने लगे हैं भगवान की खोज।
जाने क्यों पढ़के भी अनपढ़ों की तरह
करते हैं, व्यवहार ये लोग।
पिता तो खुद भगवान हैं,
वहीं जमीं और वही आसमान हैं।
उनके पैरों की धूल ही भगवान का धाम है।
उनके बिना जिंदगी वीरान है।
मुश्किल सफर में हर राह कांटेदार है।

-भावना शाही, एक्सपोंसियल स्कूल, बिंदुखत्ता

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