कभी अभिमान तो कभी स्वाभिमान है पिता
कभी धरती तो कभी आसमान है पिता
जन्म दिया है अगर मां ने
जानेगा जिससे जग वो पहचान है पिता
कभी कंधे पे बिठाकर मेला दिखाता है पिता
कभी बनके घोड़ा घुमाता है पिता
मां अगर पैरों पे चलना सिखाती है
तो पैरों पे खड़ा होना सिखाता है पिता
कभी रोटी तो कभी पानी है पिता
कभी बुढ़ापा तो कभी जवानी है पिता
मां अगर है मासूम सी लोरी
तो कभी न भूल पाउंगा वो कहानी है पिता
कभी हंसी तो कभी अनुशासन है पिता
कभी मौन तो कभी भाषण है पिता
मां अगर घर में रसोई है
तो चलता है जिससे घर वो राशन है पिता
कभी ख्वाब को पूरी करने की जिम्मेदारी है पिता
कभी आंसुओं में छिपी लाचारी है पिता
मां गर बेच सकती है जरूरत पे गहने
तो जो अपने को बेच दे वो व्यापारी है पिता
कभी हंसी और खुशी का मेला है पिता
कभी कितना तन्हा और अकेला है पिता
मां तो कह देती है अपने दिल की बात
सब कुछ समेट के आसमान सा फैला है पिता
-नीरज मिश्रा, हल्द्वानी
May 31, 2020
Very truely… Explained. Touchy poetry. Keep it up