शाम हो ही चुकी थी। सर्दी दहलीज पर खड़ी थी। सोच रही थी गरमी जाए तो वो आ धमके। अंधेरा बस सड़क के लैंप पर उतर रहे थे। रिक्शा वाला अपनी लाइन में खड़ा था। अपनी बारी आए तो सवारी लेकर आज की रोटी बना सके। मेटो स्टेशन के आगे रिक्शे वालों की लंबी लाइन लगा करती थी। वो ज्यादा भाग दौड़ नहीं किया करते थे। वैसे जब उनकी बारी आती तो सवारी उनकी उम्र देखकर दूसरे जवान रिक्शेवाले के साथ चले जाते। वो वहीं के वहीं पैंडल पर पैर रखे दुबारा पीछे सरक जाते।
आवाज भी तो नहीं लगाते थे। चुपचाप खडे रहते और सवारी के इंतजार में कई बार सुबह से शाम हो जाती और मुश्किल से चार या पांच सवारी खींच पाते। यानी जो कमाते उसका बड़ा हिस्सा मालिक की जेब में चला जाता।
‘‘राम खेलावन तुम रिक्शा क्यों खींचते हो? तुम से तो देह चलता नहीं सवारी कैसे खींचोगे?’’
‘‘ले पचास रुपए रख लो आटा खरीद लेना और प्याज के साथ रोटी खा लेना।’’
आवाज में थोड़ी हमदर्दी सी आ गई थी। मालिक तो था लेकिन शायद उसके पास इंसानियत अभी पूरी तरह से मरी नहीं थी।
मालिक के पास सौ रिक्शे थे। सब के सब किराए पर चलते थे। हर राज्य के रिक्शेवाले थे उसके पास। क्या एमपी, क्या यूपी और क्या राजस्थान और बिहार इन्हीं लोगों के बीच रहते रहते मालिक को भी इनकी जबान काफी हद तक आ चुकी थी। जिस राज्य का रिक्शावाला होता उससे उसी की जबान में बात करता।
रामखेलावन अकेला हो गया। न आगे नाथ न पीछे पगहा। बस एक लड़की रह गई जो दूसरे गांव ब्याही थी। उसके बच्चे थे। उन्हीं के लिए जी रहा था।
दिल्ली आए रामखेलावन को तकरीबन बीस साल हो चुके थे। पहले पहल जब दिल्ली आया तो रिक्शा नहीं खींचता था। तब वह स्कूल में चपरासी लगा था। वहां से खाने-पीने भर की कमाई हो जाती थी। दो बेटे और एक बेटी थी। पड़ोस में ही स्कूल में पढ़े और बड़े हुए। एक दिन पता चला बड़ा बेटा रेलगाडी के नीचे आ गया। तब तो जैसे इसकी कमर ही टूट गई। पूरा परिवार अनाथ सा हो गया। लेकिन उस दौर में भी रामखेलावन अपने और अपने परिवार को बांधे रखा। कहानी यही नहीं रूकी बल्कि छोटका जब बड़ा हुआ उसे प्रेम हो गया। वह भी दो घर छोड़ कर। एक रात तो लोगों ने जमकर उसकी कुटाई भी की। मगर आदत इश्क की थी सो आगे बढ़ी और दो भाग गए। कहां गए कुछ पता नहीं चला। आज भी कई बार रामखेलावन अकेला होता है तो छोटका को बहुत याद करता है। क्या तेज दिमाग पाया था। तभी उसके ऑटो खरीद ली थी।
जब से नोटबंदी हुई रामखेलावन के तो जैसे दुनिया ही अंधेरे में चली गई। पहले कुछ सवारी कम से कम उम्र की लिहाज कर बैठ जाया करते थे। आस पास रिक्शे से जाने वाली सवारी पैसे बचाने के लिए पैदल ही चलने लगे। मेटो के पास ही खड़ा हुआ करता था। सो कुछ लोगों को मालूम हो चला था कि रामखेलावन पेशेवर रिक्शावाला नहीं है। जब उसे कोई ऐ बाबा या रिक्शा कह कर बुलाता तो बहुत बुरा लगता। इसलिए उसने आपने रिक्शें के आगे हैंडिल पर एक तख्ती टांग रखी थी। उसपर उसका नाम, गांव का नाम और डिग्री लिखा होता। कुछ लोग नाम पढ़कर आवाज लगाते तो उसे बहुत अच्छा लगता। वैसी सवारी से मोल भाव भी नहीं करता। उस सवारी से देश दुनिया, आस पड़ोस सब तरह की बाते करते हुए रिक्शा चलाता।
‘‘बाबू जी आप लोग बड़े बड़े ऑफिस में काम करते हैं। हमरे लिए कोई नौकरी हो तो बताइए।’’ …लेकिन उसे कहीं नौकरी नहीं मिली। और रिक्शा चलाने लगा।
आज पूरी रात उसका माथा और देह बुखार में तवे की तरह गरम था। बुखार भी ऐसा कि चलने में घुटने दर्द कर रहे थे। शाम होते होते उसका शरीर खड़े होने लायक भी नहीं रहे। वहीं सड़क के किनारे लेट गया। सवारी उसके आगे से जवान रिक्शेवालों के साथ जाती रहीं।
-कौशलेंद्र प्रपन्न
October 7, 2017
कहानी कुछ अधूरी सी रह गयी सर
October 7, 2017
अच्छी कहानी परंतु अंत कुछ अपूर्ण।फिर भी अच्छा लेखन।