तुम थे सावन
और मैं नन्हीं बदरी
तुम गरजते और
मेघ ले आते
मैं सहमी सी
अपलक तुम्हें निहारती
तुम रिमझिम बरस जाते
और मैं अपने अंदर
किणमिण करती
बूंदों को छिपा लेती
क्योंकि तुम्हारे सामने
उनकी कोई बिसात न थी
जब तुम्हारी गर्जन तर्जन
समाप्त हो जाती
तो तुम चल देते
मैं स्वयं को देखती
और पाती कि
इतने विशाल नभ में
मैं अकेली विचर रही हूं
मैं सहम जाती
तुम्हें पुकारती
पर तुम नहीं लौटते
मैं तुम्हें याद कर
बरस जाती
और अपने अस्तित्व को
मिटा देती
लोग कहते
एक आखिरी बदरी थी
जो बरस कर मिट गई
अब न जाने फिर
सावन कब आयेगा।।
मीना अरोड़ा, haldwani।
July 3, 2019
सुंदर भावपूर्ण कविता। मीना जी को बधाई।