छाँव में ही तुम्हारी, मैं पलता रहा
थामे अँगुली तुम्हारी,मैं चलता रहा
कैसी हो मुश्किलें मैं तो बढ़ता रहा
संग तुम्हारे मैं गिरता संभलता रहा
मेरे खुशियों की तुम ही वज़ह हो,
जहान हो, जहान हो,जहान हो
मेरे पापा तुम मेरी जहान हो;
जब भी तन्हा था मैं, तुम मेरे साथ थे
मेरे माथे पे हरदम, ये तेरे हाथ थे
मैंने तुमसे है जाना अपने भगवान को
ख़ास तुमने बनाया आम इंसान को
तुमको कैसे बताऊँ की तुम क्या हो;
जहान हो,जहान हो, जहान हो
मेरे पापा तुम मेरी जहान हो;
मेरे कदम जब पड़े तुम्हारी हथेली वहाँ थी,
प्यार से घर को तुमने हवेली बना दी
कोई विपदा जो आई, दीवार तुम बन गए
धीरे धीरे दुनिया मेरी, संसार तुम बन गए
है नहीं पापा जिनके, दुनिया उनकी वीरान हो
जहान हो,जहान हो,जहान हो
मेरे पापा तुम मेरी जहान हो
गोंद में तुम्हारी खेला बचपन मेरा
कंधों पर ही तुम्हारी मैं उछलता रहा
एक ही प्रश्न पूछा,गर मैंने लाखों दफ़ा
तुम बताते रहे,मैं ख़ुश होता रहा
मुझसे शख़्सियत तुम्हारी ना बयाँ हो,
जहान हो,जहान हो,जहान हो
मेरे पापा तुम मेरी जहान हो
दूध की बोतलें लेकर जगते रहे तुम,
राह की काँटो पर,मेरे चलते रहे तुम
कुछ न मुझको बताया,हरदम हँसते रहे तुम
पीड़ा कैसी भी हो,उसको सहते रहे तुम
बिन तुम्हारे दुनिया की, ना कल्पना हो;
जहान हो,जहान हो,जहान हो
मेरे पापा तुम मेरी जहान हो
-सुयश कुमार द्विवेदी, दिल्ली