June 10, 2020 1Comment

ये है पिता की छत्रछाया

जबसे होश संभाला,
अपने सन्मुख है पाया।
क्या है तुम्हें बतलाऊँ?
ये है पिता की छत्रछाया।।

पूछो उनसे जरा उनका हाल,
जिनके पिता को उठा ले गया काल।
सोचकर कांप उठती रूह मेरी,
विनती है प्रभु न करना बेहाल।।

जिम्मेदारियों ने यूँ भगाया है।
पर न कभी हमें जताया है।
देकर सदा ही सुख की छांव,
धूप में खुद को ही तपाया है।।

लाड कभी दिखाया नहीं,
चाहते है बताया नहीं,
यह बातें समझ ना आयी।
जब तक डोली में बिठाया नहीं।।

आजीवन जानी जाऊँ मैं।
नाम पिता का ही अपनाऊँ मैं।
जो कुछ भी पाया इस जीवन ,
देन उन्हीं की ये बताऊँ मैं।।

पितृ दिवस की यह बेला आई।
दिल ने मुझे यह बात बतलाई।
मुझमें झलकता पिता का अक्स,
पिता ही तो हैं मेरी परछाई।।

-गीता उप्रेती
पुत्री श्री सुरेश चंद्र उप्रेती
स.अ. गणित
रा. उ. मा. विद्यालय उद्यमस्थल
वि. ख.- कपकोट
जनपद- बागेश्वर

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gtripathi

1 comments

  1. बहुत सुंदर लिखती हो आप ।

    आपकी इस रचना ने हृदय हो को छू लिया मेरे।

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