शाम होते थके घर आते हैं,
फिर थोड़े देर कीचन में मां का हाथ बढ़ाते हैं।
यूं कहने को तो ,दुख: बहुत है उन पे,
लेकिन हमारे दुख दूर करते करते ,वे अपने ग़म भूल जाते हैं।
बचपन से आज तक मेहनत करते देखा है उनको,
लेकिन हमारी ख्वाहिश पूरी करते करते वे अपनी जरूरतें भूल जाते हैं।
अंदर से नरम, बाहर से गरम
ऐसा मिजाज़ है उनका।
परिवार पर कोई आंच ना आए सदैव रखते हैं ध्यान इसका।
जब भी अंधकार की घड़ी आती ,अपना निराश होकर सबका हौसला बढ़ाते पापा।
घर से लेकर ऑफिस तक सारी टेंशन चुपचाप अकेले सहते पापा।
पिता तो सपनों को पूरा करने में लगने वाली जान हैं।
इसी से तो मां और बच्चों की पहचान है।
-दीक्षा नगरकोटी