मैं हूं जैसे एक ओस की बंद घास पर,
पर मेरे पापा के लिए हूं मैं एक नायाब मोती।
जैसे वृक्ष के सहारे बढ़ती है एक बेल,
ठीक वैसे ही बढ़ाया है मेरे पापा ने मुझे।
कठिनाइयों की आंधी में ढाल बन,
सदैव खड़े रहे हैं मेरे पास।
स्वयं को आग में जला विशिष्टता,
के सांचे में ढाला है मुझे।
उदासियों की आंधी में खुशियों की,
बारिश लेकर आए हैं मेरे पापा।
जिंदगी की शाम में भी दहकते,
शोले हैं मेरे पापा।
चाणक्य सा मस्तिष्क लिए,
मेरे लिए आइन्सटाइन हैं मेरे पापा।
सर्वगुण संपन्नता की खुशबू से सुशोभित
पर शिशु से भी कोमल हृदय वाले हैं मेरे पापा।
-रोशनी पराशर, हल्द्वानी