जिंदगी की राह में,
दिखी मुझे भी एक परछाईं ,
जो लड़ी इस दुनिया से ,
पल-पल मुड़ती राहों में ,
कभी लड़ती दिखती वो मुझको ,
किसी की हिमायत में ,
तो कभी मुहाफिज बन कर ,
बचाया मुझे इन कठिनाइयों में ,
कभी बादल सी चादर ओढ़ाकर ,
ले जाती मुझे आसमानों में ,
ताकि धूूप की तपती नजरो से ,
मुरझा ना जाये ये खिलखिलाती कलियां ।
रोशन ख्वाबांे को दी जगह ,
कुछ अँधेरी रातों में ।
जज्बातों से न खेले कोई ,
हर दम बस ये ही सिखाया ,
अहसास दिला दिया उन्होंने ,
हर एक सच्चाइयों का।
आगे बढ़ कर जब मुड़ के देखा ,
मैंने उस परर्छाईं को ,
तब मैंने ये जाना कि ,
मेरा पिता मेरी परछाईं हैं।
-अफीफा, भीमताल