ताप न जिसको झुलसा पाया,
शीत न जिसको ठिठुरा पाई।
विषम परिस्थितियों में पल कर
जिसने अपनी राह बनाई
मेरे पिता मेरी परछांई।
बड़े-बड़े झंझावत जिसके
बढ़ते कदम रोक नहीं पाए,
अपने ही तप श्रम के बल पर
ज्ञान साधना-सिद्धी पाई
मेरे पिता मेरी परछांई।
समता भाव था उनके अंदर,
भेदभाव को नहीं अपनाए।
मदद निर्धनों की करते थे,
दया, प्रेम उर में थी समाई।
मेरे पिता मेरी परछांई।
उमा इनकी सहचरी थी,
जिनसे शक्ति कविता की आई
प्रतिभावान सुता-सुत इनके
जिनने इनकी कीर्ति बढ़ाई।
मेरे पिता मेरी परछांई।
ऐसे प्रतिभावान पिता से
कविता ‘शक्ति‘ के उर आई।
शत-शत, नमन, जनक-जननी को
बड़े भाग इनके गृह आई।
मेरे पिता, मेरी परछांई।
इनके आशीर्वाद के बल पर
कविता की रचना कर पाई
रंग-रूप-छवि उनकी पाई
मेरे पिता मेरी परछांई।
चले गए गोलोक पिता पर,
स्वप्न लोक में आते रहते।
अन सुलझी गुत्थी ‘शक्ति‘ की
आकर के इनने सुलझाई।
मेरे पिता मेरी परछांई।
उनकी मधुर-सुखद स्मृतियां
मनस पट में रहती छाईं
रोम-रोम उनका आभारी
मेरे पिता, मेरी परछांई
-शक्ति श्रीवास्तव, बांदा