दीवाली की पुताई करके जा रहे मजदूर की नजर वृद्धा के आँगन के कोने पर पड़े टूटे फूटे खिलौनों पर पड़ी तो उसने पूछा -” अम्मा जी ये खिलौने काम के नहीं हैं तो मैं ले जाऊँ क्या ?” अरे बेटा ! इन बेकार खिलौनों को ले जाकर क्या करोगे? मैंने तो ये फेंकने के लिए निकाले हैं।
” फेंकने क्यों हैं अम्मा ! मैं ले जाता हूँ मेरे बच्चे खेलेंगे। देखना कितने खुश हो जायेंगे , उनकी तो दीवाली बन जाएगी। कहते हुए वह खिलौनों को बच्चों की तरह खेलते हुए समेटने लगा। उसके पिचके चेहरे में बचपन तैरने लगा , उसकी ख़ुशी देखने लायक़ थी। खिलौनों को छूकर मानो उसने अपने बचपन की हसरत तृप्त कर ली हो।
अंगोछे में खिलौने बांधकर वह अपनी ध्याड़ी से पचास रूपये निकालकर वृद्धा की तरफ बढ़ाने लगा ।
“अरे नहीं बेटा ! ये क्या कर रहे हो? मुझे तो ये फेंकने ही थे, तुम ऐसे ही ले जाओ। ”
” नहीं अम्मा जी , नहीं ! मैं अपने बच्चों के लिए कुछ भी मुफ्त का नहीं ले जाता। ”
एकाकी जीवन जी रही वृद्धा ने पचास रूपये माथे से लगाकर अपने पल्लू में गाँठ बाँध लिए। आज उसके झुर्रीदार चेहरे पर अजीब सी टीस दिखाई दे रही थी। उसकी डबडबाई आँखों से टूटते आंसू अपनी कहानी स्वयं बयां कर रहे थे। वह अपने उन बच्चों के टूटे खिलौनों को सँभालते संभालते अब पूरी तरह थक चुकी थी, बड़े होते ही उसे बेसहारा छोड़ कर चले गए थे।
रचनाकार – कैलाश चन्द्र जोशी, कानपुर, उत्तर प्रदेश