ओढ़े सफेद चुनरी फिर से
मैं आंगन में आ बैठी हूं।
अब तो बरसों मेघा प्यारे,
मैं खुद को सजाकर बैठी हूं।
एक बंूद तुम्हारी कोरी सी,
चुनरी को फिर से रंग देगी।
सूखी नदियां से जीवन में
फिर से अविरल जल भर देगी।
कुछ शर्त लगी है ख्याबों से
मैं फिर इतराकर बैठी हूं। अब तो….
एक बूंद दिखाकर छोटी सी
बादल में यूं ना छिप जाओ।
बस झूम-झूम बरसो बरखा
आॅलिंगन में तुम बंध जाओ।
तन-मन अपना सारा जीवन
मै हार, गंवाकर बैठी हूं। अब तो…
चूड़ी, बिंदियां, पायल, गजरा
एक वक्त हुआ रोपे कजरा।
हर बंूद तुम्हारी मोती है
श्रृंगार यही करते पूरा।
प्रीतम की यादों के द्रव से
मैं खुद को तपाकर बैठी हूं। अब तो…
जब घुमड़-घुमड़ आवाज मेरे
कानों में आ टकराती है।
मन में बदरा जो उमड़ रही
वो नैनों से झर जाती है।
कोमल मन के रस झरनों से
मैं प्यास बचाकर बैठी हूं। अब तो…
तुमने केशों से पैरों तक
रग-रग को पावन कर डाला
तपती, सूखी यह देह, मरू
हर कोना सावन कर डाला।
वर्षा अमृत बन बरसी तुम
छलकाया मोहिनी सा प्याला।
कोसी चुनरी में इंद्र धनुष
रंगों को छिपाकर बैठी हूं।
मेघा माला तुम पर अर्पण
मैं प्राण बिछाकर बैठी हूं।
अब खूब बहो मेघा प्यारे
मैं खुद को सजाकर बैठी हूं।
-डा. गुंजन जोशी, हल्द्वानी