कंधे पर जिसकी वो नन्हीं उम्र बिताई,
अंगुली जिसकी थाम के, कदमों ने ली अंगड़ाई,
पग बढ़ाने का हौसला देकर, पैरों पर जिसने खड़ा किया,
मेरी आस, मेरा विश्वास, मेरे पिता मेरी परछाई।
कभी परिवार बीच अकेला, तो कभी अकेला ही परिवार है पिता,
मुसीबतें हमारी काटने वाली अकेली तलवार है पिता,
सपना मेरा सच करने को, इच्छाएं अपनी जलाई,
मेरा अभिमान, मेरा स्वाभिमान, मेरे पिता मेरी परछाईं।
मैं पतंग कच्चे कागज की, मेरे पिता मेरी डोर बने,
आसमान में मुझे उड़ाकर, जीवन का नया भोर बने,
कांटा न चुभने दिया, खुद जाने कितनी चोटें खाई,
मेरी शान, मेरी पहचान, मेरे पिता मेरी परछाईं।
आज पिता की परवरिश को कपूतों ने ललकार दिया,
वृ़द्धाश्रम की राह दिखाकर, अपनों ने दुत्कार दिया,
तो दहलीज को पार किए बिन, प्राण करे भरपाई,
मेरे सारथी, मेरे महारथी, मेरे पिता, मेरी परछाईं।
-निर्मला भट्ट, चंपावत